Ganeshotsav 2019: ‘गणपति बप्पा मोरया पुरच्या वर्षी लवकर या... महाराष्ट्र के सबसे बड़े पर्व ‘गणेशोत्सव’ (Ganeshotasav) के समापन पर हर वर्ष गणेश भक्त इसी कामना के साथ गणेश जी (Lord Ganesha) की विदाई करते हैं, कि अगले बरस फिर से पधारेंगे गणपति बप्पा (Ganpati Bappa). आज एक बार फिर वह घड़ी आ गयी है, जब गणपति बप्पा के स्वागत के लिए संपूर्ण महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि भारत के हर शहरों यहां तक कि विदेशों में भी बप्पा के लिए पंडाल सजने लगे हैं. इस वर्ष भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी (अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 2 सितंबर 2019) को श्रीगणेशोत्सव का 11 दिवसीय पर्व शुरू हो रहा है. यहां हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि गणेशोत्सव की परंपरा कब से और क्यों शुरू हुई.
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन गणेश चतुर्थी का पर्व हजारों साल से मनाया जा रहा है. प्रत्येक चंद्र माह में हिंदी कैलेंडर में दो गणेश चतुर्थी होती है. शिव पुराण के अनुसार, इसी दिन भगवान श्रीगणेश का जन्म हुआ था. शुक्लपक्ष की चतुर्थी को ‘विनायक चतुर्थी’ तथा कृष्णपक्ष की चतुर्थी को ‘संकष्टी चतुर्थी’ कहते हैं. इस दिन अधिकांश हिंदू घरों में गणेश जी का व्रत रखने के पश्चात सायंकाल चंद्रदर्शन कर व्रत का पारण करने की परंपरा है, लेकिन भाद्रपद माह के शुक्लपक्ष की चतुर्थी के दिन यही गणेश पूजा एक नहीं बल्कि 11 दिनों तक मनाया जाता है.
जीजा माता ने दिया इसे भव्यतम स्वरूप
पहले संपूर्ण भारत में भाद्रपद की शुक्लपक्ष की गणेश चतुर्थी भी एक ही दिन मनायी जाती थी. लेकिन बताया जाता है कि शिवाजी महाराज ने इसे भव्य स्वरूप देने की कोशिश की थी, क्योंकि शिवाजी महाराज भगवान गणेश को बहुत मानते थे. ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि शिवाजी महाराज के बचपन के दिनों में मां जीजाबाई ने पुणे के ग्राम कसबा में गणपति जी की स्थापना कर इसे भव्यतम बनाने की शुरुआत की. उनके बाद पेशवा राजाओं ने भी गणेशोत्सव को बढावा दिया. कहा जाता है कि पेशवाओं के महल शनिवारवाडा में पुणेवासियों के साथ पेशवा के लोग बड़ी उत्साह के साथ गणेशोत्सव मनाते थे. यह भी पढ़ें: गणेश चतुर्थी 2019 में कब है? जानिए गणेशोत्सव का महत्व, पूजा विधि और शुभ मुहूर्त
इस समारोह पर कीर्तन-भजन के बाद ब्राह्मणों को महाभोज और निर्धनों को वस्त्र एवं भोजन वितरित किया जाता था, लेकिन जब ब्रिटिश हुकूमत आयी तो उन्होंने पेशवाओं के राज्यों पर अधिकार किया और गणेशोत्सव के महत्व को कमतर बनाया. बताया जाता है कि ब्रिटिश अधिकारी ऐसे हिंदू पर्वों के समय धारा 144 लगा देते थे, ताकि समारोह एक स्थान पर ज्यादा लोग एकत्रित ना हो सकें. धारा का उल्लंघन करने पर अंग्रेज सरकार कड़ी कार्रवाई करती थी.
तिलक ने ब्रिटिस हुकूमत के खिलाफ बनाया मंच
ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि गणपति पर विशेष उत्सव की शुरुआत 1893 में महाराष्ट्र से लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने किया था. दरअसल तिलक युवा क्रांतिकारी और गर्म दल के नेता के रूप में मशहूर थे. अंग्रेज भी जानते थे कि तिलक अगर सार्वजनिक क्षेत्र से भाषण देंगे, तो वह केवल ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आग उगलने वाले ही होंगे. तिलक अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ स्वराज के लिए संघर्ष कर रहे थे. वस्तुतः तिलक ने महसूस किया कि महाराष्ट्र के लोगों में गणेश जी के प्रति अगाध भक्ति एवं आस्था है. अगर गणेशोत्सव के मंच को वृहद एवं सुंदर स्वरूप दिया जाये तो इस मंच के नीचे काफी लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जा सकती है.
अंततः बाल गंगाधर तिलक ने 20 अक्टूबर 1893 में अपने निवास यानी पुणे के केसरीवाडा से गणेशोत्सव के स्वरूप को विस्तार देते हुए 11 दिनों के गणोशोत्सव का सिलसिला शुरू हुआ. इस महोत्सव के तहत 10 दिनों के कार्यक्रमों में लोकगीतों और मराठी नाटकों का मंचन किया गया, शिवाजी की वीरता की कहानियां दिखाई गयीं, आजादी के लिए जनता को जागरूक करने, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने की कोशिश की जाती थी.
ऐसा नहीं कि ब्रिटिश हुकूमत तिलक के गणेशोत्सव पर नजरें नहीं रखी थी. लेकिन भाषा और प्रस्तुति के गूढ़ तरीकों और उसके पीछे छिपे उद्देश्य को समझ नहीं सकें. कुछ ही सालों में यह पर्व एक बड़ा आंदोलन बन गया. जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में अहम भूमिका निभाई. यह भी पढ़ें: बुधवार का दिन है भगवान गणेश के लिए बेहद खास, इस विधि से पूजा करने से दूर होते हैं जीवन के सारे विघ्न
गणेशोत्सव से घबराने लगे थे अंग्रेज
गणेशोत्सव के बढ़ते स्वरूप से ब्रिटिश अधिकारी भी घबराते थे. कहा जाता है कि गणेशोत्सव का जिक्र रोलेट समिति की रिपोर्ट में भी रखी गयी थी. रिपोर्ट में यह बात विशेष रूप उल्लेखित थी कि गणेशोत्सव में नवयुवक बड़े-बड़े ग्रुप में घूम-घूम कर ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ लोगों को भड़काते हैं. स्कूली बच्चों का इस्तेमाल अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने, हथियार उठाने संबंधित पर्चियां बांटने के लिए क्या जाता था. तिलक के इस तरह के इस तरह के हथकंडों से अंग्रेज अधिकारी अकसर परेशान रहते थे. लेकिन वे कुछ भी नहीं कर पाते थे, क्योंकि तिलक अपनी गतिविधियों के तौर-तरीके हमेशा बदलते रहते थे.
धीरे-धीरे पूरे महाराष्ट्र में सार्वजनिक गणेशोत्सव मनाया जाने लगा. यह वो दौर था, जब ब्रिटिश हुकूमत के अलावा अन्य धर्मों के लोग भी हिंदू धर्म पर हावी होने की कोशिश कर रहे थे. इस संबंध में भी बाल गंगाधर तिलक ने पूना (पुणे) की एक सभा खुलकर सारी स्थिति स्पष्ट की, और अंत में यह तय किया गया कि भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से भद्रपद शुक्ल चतुर्दशी (अनंत चतुर्दशी) तक गणेशोत्सव मनाने का यह सिलसिला जारी रखा जाए. आज वही गणेशोत्सव हमारी धार्मिक परंपरा बन चुकी है.