Chhath Puja 2019: बिहार में पश्चिमाभिमुख देव सूर्य मंदिर में लगता है छठ मेला, जानें आस्था से जुड़ी ये कहानी
छठ पूजा मेला (Photo Credits: PTI)

बिहार (Bihar) के औरंगाबाद जिले का देव सूर्य मंदिर सूयरेपासना के लिए सदियों से आस्था का केंद्र बना हुआ है. आमतौर पर सूर्य मंदिर पूर्वाभिमुख होता है, लेकिन इस मंदिर के पश्चिमाभिमुख होने के कारण त्रेतायुगीन इस मंदिर की महत्ता अधिक है. इस मंदिर की महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रतिवर्ष चैत्र और कार्तिक माह में होने वाले छठ (Chhath) व्रत के लिए यहां लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं. अभूतपूर्व स्थापत्य कला वाले इस प्रसिद्ध मंदिर के बारे में मान्यता है कि इसका निर्माण खुद भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से किया है.

काले और भूरे पत्थरों से निर्मित मंदिर की बनावट ओडिशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलती-जुलती है. मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में मंदिर के बाहर लगे एक शिलालेख के मुताबिक, 12 लाख 16 हजार वर्ष पहले त्रेता युग बीत जाने के बाद इला पुत्र ऐल ने इस देव सूर्य मंदिर का निर्माण शुरू करवाया था. शिलालेख से पता चलता है कि इस पौराणिक मंदिर का निर्माण काल एक लाख पचास हजार वर्ष से ज्यादा हो गया है.

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देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों- उदयाचल, मध्याचल और अस्ताचल सूर्य के रूप में विद्यमान हैं. कहा जाता है कि पूरे भारत में सूर्यदेव का यही एक मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख है. स्थानीय लोगों के मुताबिक, किवदंतियों को सत्य मानें तो इस मंदिर का द्वार पहले पूर्व की दिशा की ओर ही था, लेकिन एक बार लुटेरों का एक दल देव सूर्य मंदिर को लूटने यहां पहुंचा था, तब पुजारियों ने इसकी महत्ता बताते हुए ऐसा करने से मना किया.

तब लुटेरों ने कहा कि यदि तुम्हारे देवता में इतनी शक्ति है तो रातभर में इस मंदिर की दिशा पूर्व से पश्चिम हो जाए. अगर ऐसा हुआ तो इस मंदिर को नहीं लूटा जाएगा और न क्षति पहुंचाया जाएगा. लुटेरे रातभर वहीं प्रतीक्षा करते रहे. रात में पुजारियों ने भगवान भास्कर से प्रार्थना की और सुबह जब यहां लोग पहुंचे, तो मंदिर का द्वार पश्चिम की ओर हो चुका था. यह चमत्कार देखकर लुटेरे दंग रह गए और वहां से भाग गए.

इस मंदिर परिसर में दर्जनों प्रतिमाएं हैं. करीब एक सौ फीट ऊंचे इस सूर्य मंदिर का निर्माण आयताकार, वर्गाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया है. जनश्रुतियों के आधार पर इस मंदिर के निर्माण के संबंध में कई किवदंतियां प्रसिद्ध हैं, जिससे मंदिर के अति प्राचीन होने का स्पष्ट पता चलता है. इसके निर्माण के संबंध में हालांकि कोई स्पष्ट तिथि नहीं मिलती.

सर्वाधिक प्रचारित जनश्रुति के अनुसार, राजा ऐल श्वेतकुष्ठ रोग से पीड़ित थे. एक बार शिकार करने देव के वनप्रांतर में पहुंचने के बाद वह राह भटक गए. भूखे-प्यासे राजा को एक छोटा-सा सरोवर दिखाई पड़ा, जिसके किनारे वह पानी पीने गए और अंजलि में भरकर पानी पिया. पानी पीने के क्रम में वह यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गए कि उनके शरीर के जिन हिस्सों पर पानी का स्पर्श हुआ, उन हिस्सों से श्वेतकुष्ठ के दाग चले गए. शरीर में आश्चर्यजनक परिवर्तन देख प्रसन्नचित राजा ऐल ने यहां एक मंदिर और सूर्यकुंड का निर्माण करवाया था.

मंदिर के मुख्य पुजारी सच्चिदानंद पाठक ने बताया, "भगवान भास्कर का यह मंदिर सदियों से लोगों को मनोवांछित फल देनेवाला पवित्र धर्मस्थल है. वैसे तो यहां सालभर देश के विभिन्न जगहों से लोग आते हैं और मनौतियां मांगते हैं, लेकिन छठ के मौके पर यहां लाखों की भीड़ जुटती है. यहां आने वाले लोग सूर्यकुंड में स्नान कर मंदिर पहुंचते हैं और भगवान भास्कर की आराधना करते हैं."