कुपोषण के लिए 'बदनाम' झारखंड में बदलाव की मिसाल बनकर उभरीं राजाबासा गांव की महिलाएं
कुपोषण (Photo Credits: Wikimedia Commons)

रांची, 31 अक्टूबर: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बोलते हैं कि झारखंड (Jharkhand) में 45.39 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और तकरीबन 55 महिलाएं खून की कमी यानी एनीमिया से ग्रसित. वजह साफ है कि इन्हें पौष्टिक आहार नहीं मिलता, जिससे शरीर की प्रोटीन, विटामिन, काबोर्हाइड्रेट, आयरन, वसा आदि की जरूरतें पूरी हो सकें. यह भी पढ़े: Firecrackers Banned: दिवाली पर इन राज्यों में पटाखे बैन, जानें आपके राज्य में क्या हैं नियम

हालांकि, इसी राज्य में पूर्वी सिंहभूम जिले में घाटशिला ब्लॉक अंतर्गत हेन्दलजोरी पंचायत के राजाबासा गांव की महिलाएं कुपोषण के खिलाफ अभियान में मॉडल बनकर उभरी हैं. कुपोषण और एनीमिया से लड़ने के लिए इस गांव के घर-घर में अब आसानी से ऐसे पोषाहार का निर्माण हो रहा है, जो बच्चों और महिलाओं को शक्ति और समुचित पोषण दे रहा है.

गांव में स्थानीय स्तर पर तैयार किए जाने वाले इस विशेष पोषाहार को ह्यपुष्टाहार का नाम दिया गया है. गांव के लोगों को इसे बनाने का तौर-तरीका बताया सेंटर फॉर वल्र्ड सॉलिडेरिटी (सीडब्ल्यूएस)के उत्प्रेरकों ने। राजाबासा गांव की माला रानी भगत बताती हैं कि अबयहां कोई घर ऐसा नहीं मिलेगा, जहां यह पुष्टाहार नहीं बनता है.

खासकर महिलाओं को समझ आ गया है कि इसमें वे सारे तत्व हैं जो उन्हें और उनके बच्चों को स्वस्थ रहने के लिए चाहिए।वह कहती हैं, सीडब्ल्यूएस संस्था के साथियों ने गांव में शिविर लगा कर महिलाओं को इसे बनाना सिखाया. पहली बार संस्था की ओर से पुष्टाहार बनाने के लिए आवश्यक सामग्रियां बांटी गयी और संस्था के लोग महिलाओं को लगातार प्रोत्साहित करते रहे.

लक्ष्मी महतो कहती हैं, पहले बच्चों के सम्पूर्ण शारीरिक विकास के लिए सब पौष्टिक आहार की सलाह देते और बाजार के कुछ प्रोडक्ट्स का नाम बता देते, पर इसकी कीमत हमारी क्रय क्षमता के बाहर थी. अब हम खुद पुष्टाहार बनाते हैं, इससे जच्चा और बच्चा दोनों का पोषण ठीक रहता है. इसका जायका भी सबको खूब पसंद आ रहा है.

ग्रामीण महिलाओं ने चावल, गेहूं, मूंगफली, मकई, मसूर, अरहर, मूंग दाल, चना और बादाम जैसे अनाजों को मिलाकर पुष्टाहार बनाती हैं. बच्चों को स्वाद बेहतर लगे, इसलिए इसमें गुड़ मिलाया जाता है. सारी सामग्रियों को मिला कर इसे भून दिया जाता है. एक बार दो-से चार किलो पुष्टाहार बनाया जाता है. लगभग पंद्रह दिनों तक इसे इस्तेमाल में लाया जाता है.

महिलाएं इसे आस-पास के घरों में बांटती भी हैं. ऐसे भी ग्रामीण क्षेत्रों में कई अनाजों को मिलाकर खाने का प्रचलन पहले से है. धीरे-धीरे इस उत्पाद की लोकप्रियता बढती जा रही है. खास बात यह है कि इसमें सीधे खेतों से प्राप्त फसल का इस्तेमाल किया जाता है. सीडब्ल्यूएस की राजलक्ष्मी बताती हैं कि बच्चों में कैलोरी की जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक मात्रा में जिन चीजों की जरूरत होती है, उसके बारे में हमलोगों ने गांव वालों को बताया.

उन्हें पोषण का महत्व समझाया और अब यहां आ रहा बदलाव सुखद लग रहा है. वह कहती हैं कि इस गांव की महिलाएं अब कुपोषण के खिलाफ अभियान में अग्रदूत बनकर उभरी हैं. आस-पास के गांवों के लोग भी इनसे प्रेरित होकर पुष्टाहार बनाना सीख रहे हैं. महिला समूह की सदस्य शिखा रानी महतो कहती हैं कि अब इस पुष्टाहार को गर्भवती महिलाएं, वृद्ध महिलाएं और बुजुर्ग भी खाते हैं. गांव में कई परिवार महीने भर का पुष्टाहार एकसाथ बना लेते हैं. अब हम आत्मनिर्भर हो गये हैं.