नयी दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि पति के साथ एक समझौता ज्ञापन के तहत आपसी सहमति से तलाक के लिए दूसरी अर्जी को लेकर पत्नी के सहमति वापस लेने को अदालत की अवमानना नहीं कहा जा सकता है. अदालत ने कहा कि कानून और परिवार अदालतों का दृष्टिकोण सुलह वाला होता है तथा परिवार अदालत द्वारा पक्षों को पारस्परिक रूप से स्वीकार्य नहीं होने पर तलाक लेने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है. आपसी सहमति से तलाक के लिए दूसरी अर्जी तब दायर की जाती है जब दंपति छह महीने की अवधि के बाद दूसरी बार अदालत में पेश होता है.
अदालत ने कहा कि दूसरी अर्जी दाखिल करने के लिए न्यूनतम छह महीने की ‘अंतराल अवधि’ कानून के तहत प्रदान की जाती है, जिसका एकमात्र उद्देश्य पक्षों को पहली अर्जी के बाद अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए समय देना है और यदि कोई भी पक्ष निर्णय पर पुनर्विचार करने तथा सहमति वापस लने का निर्णय करता है तो इसमें कुछ भी गैरकानूनी नहीं है. उच्चतम न्यायालय ने पुलिस की लचर जांच पर निराशा जताई, जांच संहिता की हिमायत की
अदालत ने यह आदेश पारिवारिक अदालत के एक आदेश के खिलाफ एक व्यक्ति की अपील को खारिज करते हुए दिया. परिवार अदालत ने आपसी सहमति से तलाक लेने पर समझौता ज्ञापन (एमओयू) का पालन नहीं करने को लेकर पत्नी के खिलाफ उसकी अवमानना याचिका खारिज कर दी थी.
अदालत ने कहा कि पत्नी को तलाक देने की कोई इच्छा नहीं है क्योंकि वह पहले ही वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए अर्जी दायर कर चुकी है और दंपति की नाबालिग बेटी को उसके हवाले करने की भी मांग कर रही है.
अदालत ने कहा, ‘‘उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर, हमें नहीं लगता कि प्रतिवादी ने अदालत की अवमानना अधिनियम, 1971 के तहत कोई अवमानना की है. वर्तमान अपील में कोई दम नहीं है जिसे खारिज किया जाता है.’’
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