लखनऊ, 2 जुलाई : रास्ता जब बिल्कुल साफ हो, मौसम अनुकूल हो और रास्ते में कोई छोटा या बड़ा रोड़ा न हो तो पूरा सफर बहुत ही आसान और अबाध हो जाता है. ठीक यही स्थिति अभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की है. उत्तर प्रदेश में उनके राजनीतिक सफर को टक्कर देने की हैसियत अभी किसी की नहीं है. योगी आदित्यनाथ ने मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में पदभार संभाला और उन्होंने तब ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह किसी भी दबाव में काम नहीं करेंगे. अब चाहे वह दबाव अपनी पार्टी का हो या विपक्ष का. मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के चंद हफ्तों के भीतर, उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि विपक्षी नेताओं को आवंटित विशाल बंगले सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार खाली करा दिए जाएं.
पिछली सरकारों ने विवाद के भंवर से खुद को बचाने के लिए इस फैसले को टाल दिया था, लेकिन योगी आदित्यनाथ ने डटकर मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, और मायावती जैसे दिग्गज नेताओं को उनके सरकारी आवासों से बाहर का रास्ता दिखा दिया. योगी आदित्यनाथ ने अपने मंत्रियों को भी स्पष्ट शब्दों में कहा था कि उन्हें भी अनुशासन का पालन करना होगा और ऐसा करके उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि असहमति अगर हो तो वह सार्वजनिक रूप से सामने में न आए. पिछले साढ़े पांच साल में मुख्यमंत्री अपने फैसले खुद लेते रहे हैं. गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने से लेकर, एंटी रोमियो स्क्वॉड की स्थापना, मंदिरों का जीर्णोद्धार, 'दीपोत्सव' आयोजित करने और अयोध्या के लिए विकास पैकेज, माफियाओं पर नकेल कसने और अवैध संपत्तियों को बुलडोजर से ध्वस्त करने तक के सभी निर्णय अकेले योगी आदित्यनाथ द्वारा लिए गए थे और किसी मंत्री ने इसमें हस्तक्षेप नहीं किया. यह भी पढ़ें : प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा से अभिभूत मिताली
अधिकारियों ने मुख्यमंत्री के आदेशों का त्वरित अनुपालन सुनिश्चित किया. महामारी के दौरान भी योगी आदित्यनाथ ने अपने दम पर संकट को संभाला और उनके वफादार अधिकारियों ने इसमें सहयोग दिया. यहां तक कि तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री को भी कोविड प्रबंधन कर्तव्यों से दूर रखा गया था. एक सख्त प्रशासक के रूप में अपनी छवि बनाने वाले योगी आदित्यनाथ समय-समय पर अपनी हिंदुत्व की नीति को भी आगे बढ़ाते रहते हैं. सपा के वरिष्ठ नेता मोहम्मद आजम खान पर उनकी सरकार की कार्रवाई का विपक्ष विरोध भी नहीं कर पाई और समाजवादी पार्टी मूकदर्शक बनकर रह गई. यह उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा के राजनीतिक विरोध का अंत था. हिंदुत्व के साथ सुशासन के कॉकटेल ने सत्ता में भाजपा की वापसी सुनिश्चित की. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसकी जबरदस्त प्रशंसा की.
चुनाव परिणामों ने यह भी साबित कर दिया कि आदित्यनाथ की कार्यशैली मतदाताओं को भा गई है और यही बात पार्टी के भीतर उनके आलोचकों को चुप करा देती है. राजनीतिक ²ष्टि से, रामपुर और आजमगढ़ में हाल में हुए उपचुनाव विधानसभा चुनाव की जीत के बाद आदित्यनाथ के सामने सबसे बड़ी चुनौती थे. इन दोनों निर्वाचन क्षेत्रों पर मुसलमानों का वर्चस्व है और इन्हें समाजवादी गढ़ भी कहा जाता था. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, विधानसभा चुनाव ने न केवल विपक्ष को पूरी तरह से निराश कर दिया था बल्कि आदित्यनाथ के प्रतिशोध की शैली को भी धारदार कर दिया था. अखिलेश यादव और मायावती दोनों ने अपनी पार्टियों के लिए चुनाव प्रचार भी नहीं किया, जिससे उनके कार्यकतार्ओं का उत्साह और भी ठंडा हो गया था.नतीजा यह हुआ कि समाजवादी पार्टी अपने दोनों गढ़ हार गई और उसके पास सीटों को गंवाने और छवि को बचाने का कोई बहाना भी नहीं था. बहुजन समाज पार्टी ने कई हार के बाद, अपनी उपस्थिति सोशल मीडिया तक सीमित कर ली है, जबकि कांग्रेस उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी जमीन टटोल रही है. विपक्ष लगभग अदृश्य बनता जा रहा है और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ का डंका लगातार बज रहा है. इससे उनका आगे का सफर आसान दिख रहा है.