कृषि के क्षेत्र में अपार संभावनाएं है और आज के उन्नत किसान उन संभावनाओं को अपना रहे हैं. परंपरागत खेती के साथ ही किसानों ने उन्नत खेती को भी अपनाया है. बागवानी फसलों में पपीते की खेती भी पिछले कुछ साल से किसानों के आय बढ़ाना का अच्छा साधन बनी है. उत्तर प्रदेश के औरैया जिले के कृषि विज्ञान केंद्र परवाहा के विशेषज्ञों द्वारा किसानों को पपीते की खेती के लिए जागरूक किया जा रहा है ताकि जिले के किसान पपीते की खेती कर अच्छा मुनाफा पा सकें.
पपीता एक गुणकारी फल है, जिसे कच्चा और पका दोनों तरह से खाया जाता है. यह फल के अलावा सब्जी और मिठाई के भी काम आता हैं. . पपीता विटामिन ए और सी का अच्छा स्त्रोत है. विटामिन के साथ पपीता में पपेन नामक एंजाइम पाया जाता है जो शरीर की अतिरिक्त चर्बी को हटाने में सहायक होता है. ऐसे में किसान इसका उत्पादन करके बारहो महीने लाभ कमा सकते हैं.
कृषि वैज्ञानिक डॉ. अंकुर झा ने बताया कि, पिछले कुछ वर्षों से पपीता की खेती की तरफ किसानों का रुझान बढ़ रहा है. क्षेत्रफल की दृष्टि से यह हमारे देश का पांचवा लोकप्रिय फल है. यह बारहों महीने होता है, लेकिन यह फरवरी-मार्च से मई से अक्टूबर के मध्य विशेष रूप से पैदा होता है क्योंकि इसकी सफल खेती के लिए 10 डिग्री से 40 डिग्री तापमान उपयुक्त है.
सबसे कम समय में होता है तैयार
उन्होंने बताया कि यह स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होने के साथ ही पपीता सबसे कम दिनों में तैयार होने वाले फलों में से एक है जो कच्चे और पके दोनों ही रूपों में उपयोग होता है. इसका आर्थिक महत्व ताजे फलों के अतिरिक्त पपेन के कारण भी है, जिसका प्रयोग बहुत से औद्योगिक कामों (जैसे कि खाद्य प्रसंस्करण, कपड़ा उद्योग आदि) में होता है. इसी को ध्यान में रखते हुए कृषि विज्ञान केंद्र परवाहा के वैज्ञानिक डॉ. अंकुर झा ने किसानों को पपीता की खेती के लिए जागरूक कर उन्हें उसके लाभ बताए.
आने वाले समय में जिले में खेती का बढ़ सकता है रकबा
पपीते की खेती में लगने वाले कीट एवं रोगों की जानकारी देते हुए पौध संरक्षण विशेषज्ञ डॉ अंकुर झा ने कीट एवं रोग प्रबंधन की जानकारी देते हुए बताया कि पपीते की खेती में विभिन्न प्रकार के कीट एवं रोगों का प्रकोप होता है.
पपीते के पौधे को खराब होने से बचाने के लिए सुझाव:
मोजैक लीफ कर्ल विषाणु रोग
पपीते के पौधों में यह मुख्य रोग हैं. मोजैक लीफ कर्ल विषाणु रोग सफेद मक्खी के द्वारा पौधों में फैलता है. इससे ग्रसित पौधे की पत्तियां पीली होकर छोटी रह जाती हैं. इसकी रोकथाम के लिए पीले रंग का स्टिकी ट्रैप का प्रयोग कर सकते हैं अथवा इम्डाक्लोप्रिड 8.0 मिली एवं इस्ट्रैप्टोसायक्लीन 2.5 ग्राम को/15 ली० पानी में घोलकर सायंकाल के समय छिड़काव करें अथवा नीम की खली पेड़ों की जड़ में डालकर नियंत्रण कर सकते हैं.
दीमक प्रबंधन
पपीते के पौधों की जड़ों में दीमक का प्रकोप होता है. इसके नियंत्रण के लिए कार्टाप हाइड्रोक्लोराइड 08 किग्रा० प्रति एकड़ की दर से भूमि को शोधित करें.
माइट (लाल रंग की छोटी मकड़ियां)
यह मकड़ियां पत्ती एवं फलों से रस चूस कर बीमारी फैलाती हैं. इससे पौधे पीले पड़कर सूखने व मरने लगते हैं. इसके नियंत्रण के लिए डाइकोफॉल अथवा माइटीसाइड नामक दवा को 08 मिली/15 लीटर पानी में घोलकर सायंकाल के समय पौधों पर छिड़काव करें.
फल मक्खी (फ्रूट फ्लाई)
यह एक छोटे प्रकार की मक्खी होती है, जो फलों में डंक मारकर अंडे देती है. जिससे फल अन्दर ही अन्दर सड़ने लगता है. इसकी रोकथाम के लिए डायमेथोएट अथवा एसीफेट नामक दवा को 08-10 ग्राम/15 लीटर पानी में घोलकर सायंकाल के समय छिड़काव करें. अथवा फल मक्खी ट्रैप (गंध पाश यंत्र) के द्वारा भी नियंत्रण किया जा सकता है.
जड़ व तना सड़न, एन्थ्रेक्नोज/गोंद रिसाव रोग (गमोसिस)
इनके नियंत्रण में वोर्डोमिक्सचर 5:5:20 के अनुपात का पेड़ों पर सड़न गलन को खरोचकर लेप करना चाहिए. अन्य रोग के लिए व्लाईटाक्स 15-18 ग्राम या मेटलाक्सिल, 10 ग्राम को प्रति 15 लीटर में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए अथवा मैन्कोजेब या जिनेव 25-30 ग्राम को 15 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए.
जीवाणु रोग
इस बीमारी से ग्रसित पौधों की पत्तियों एवं फलों में विभिन्न प्रकार के धब्बे बनने लगते हैं, जो हल्के भूरे रंग से पीले रंग के होते हैं. इस बीमारी का अत्यधिक प्रकोप होने पर पौधों की पत्तियों एवं फलों में गलन व सड़न होने लगती है. इसके नियंत्रण के लिए बाविस्टीन नामक दवा अथवा हैक्साक्लोनाजोल अथवा प्रोपिकोनाजोल अथवा थायोफेनेट मिथायल अथवा डाइफेनकोनाजोल इत्यादि दवाओं में से 25-30 ग्राम को 15 लीटर पानी में घोलकर सायंकाल के समय छिड़काव करें.