Stubble Burning: हर साल दशकों से अक्टूबर से दिसंबर के बीच उत्तर भारत (North India) के इंडो-गंगेटिक मैदान में धुएं और धुंध की लंबी परतें छा जाती हैं. इस दौरान पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और अन्य राज्यों में किसान धान की फसल कटने के बाद खेतों में बची पराली (Parali) जला देते हैं.
जब हवाएं कमजोर होती हैं और वातावरण स्थिर हो जाता है, तो वायु प्रदूषण का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation) यानी डब्ल्यूएचओ (WHO) द्वारा सुझाई गई सीमा से कई गुना अधिक पहुंच जाता है. पराली जलाने से निकला धुआं अक्सर उद्योगों, वाहनों, घरेलू ईंधन (खाना पकाने और हीटिंग), पटाखों और धूल भरी आंधियों से निकलने वाले कणों व गैसों के साथ मिलकर घना स्मॉग बना देता है. वैज्ञानिकों का मानना है कि इस धुंध में पराली जलाना एक प्रमुख कारण है.
कुछ मामलों में 2025 में पराली जलाने का मौसमी समय पहले जैसा ही रहा. नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर में कार्यरत और मॉर्गन स्टेट यूनिवर्सिटी के वायुमंडलीय वैज्ञानिक हिरन जेठवा के अनुसार, अक्टूबर के आखिरी सप्ताह में फसल जलाने की गतिविधि तेज होने के बाद लगभग एक महीने तक दिल्ली और कई अन्य शहरों की हवा खराब बनी रही. जेठवा पिछले करीब एक दशक से सैटेलाइट के जरिए भारत में पराली जलाने के मौसम पर नजर रख रहे हैं और वनस्पति संबंधी आंकड़ों के आधार पर आग की तीव्रता का अनुमान भी लगाते रहे हैं.
नासा के एक्वा सैटेलाइट पर लगे MODIS (मॉडरेट रेजोल्यूशन इमेजिंग स्पेक्ट्रोरेडियोमीटर) ने 11 नवंबर 2025 को इस मैदान के बड़े हिस्से में छाई धुंध की तस्वीरें कैद कीं. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 2025 में यह उन कई दिनों में से एक था जब भारत का एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) का स्तर 400 से ऊपर पहुंच गया, जो इस पैमाने पर सबसे गंभीर श्रेणी है. हर साल की तरह इस बार भी खराब हवा के चलते कई इलाकों में स्कूल बंद किए गए और निर्माण गतिविधियों पर सख्त नियंत्रण लगाया गया. यह भी पढ़ें: दिल्ली की दमघोंटू हवा से बचाएगी आर्टिफिशियल बारिश? जानें क्लाउड सीडिंग ट्रायल का क्या हुआ
हालांकि, पराली जलाने का रोजाना समय अब पहले से अलग हो गया है. जेठवा ने बताया कि पहले वह MODIS जैसे सैटेलाइट डेटा के आधार पर आग की गणना करते थे, जो टेरा और एक्वा सैटेलाइट्स के जरिए सुबह और दोपहर में पृथ्वी के ऊपर से गुजरते हैं. उस समय ज्यादातर पराली की आग दोपहर 1 से 2 बजे के बीच लगाई जाती थी.
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में पराली जलाने का समय धीरे-धीरे शाम की ओर खिसक गया है. जेठवा के अनुसार, उन्होंने यह बदलाव दक्षिण कोरिया के GEO-KOMPSAT-2A जियोस्टेशनरी सैटेलाइट के आंकड़ों का विश्लेषण करके पहचाना, जो 2018 के अंत में लॉन्च हुआ था और हर 10 मिनट में डेटा जुटाता है.
अब ज्यादातर पराली की आग शाम 4 से 6 बजे के बीच लगाई जा रही है. इसका मतलब यह है कि जो फायर मॉनिटरिंग सिस्टम सिर्फ MODIS या VIIRS (विज़िबल इन्फ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर सूट) जैसे सेंसर पर निर्भर हैं, वे कई आग की घटनाओं को दर्ज ही नहीं कर पाते। जेठवा ने कहा, ‘किसानों का व्यवहार बदल गया है.’
GEO-KOMPSAT-2A के आंकड़ों के विश्लेषण से यह भी सामने आया है कि 2025 में पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने की गतिविधि हाल के कुछ वर्षों की तुलना में मध्यम स्तर की रही. इस साल आग की घटनाएं 2024, 2020 और 2019 से अधिक थीं, लेकिन 2023, 2022 और 2021 से कम रहीं.
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के वैज्ञानिकों ने भी पराली जलाने के समय में आए इस बदलाव की ओर इशारा किया है. 2025 में ‘करेंट साइंस’ जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया कि MSG (मेटियोसैट सेकंड जेनरेशन) सैटेलाइट के अवलोकनों के अनुसार, 2020 में जहां आग की गतिविधि का चरम समय दोपहर करीब 1:30 बजे था, वहीं 2024 तक यह शाम करीब 5 बजे पहुंच गया. दिसंबर 2025 में इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी (iForest) के शोधकर्ताओं ने भी कई सैटेलाइट्स के विश्लेषण के आधार पर इसी तरह के निष्कर्ष निकाले.
वहीं, दिल्ली की खराब हवा में पराली जलाने की वास्तविक हिस्सेदारी कितनी है, इसे लेकर वैज्ञानिकों के बीच अब भी शोध और बहस जारी है. नासा के वायु गुणवत्ता विशेषज्ञ पवन गुप्ता के अनुसार, विभिन्न अध्ययनों में इसका योगदान 10 से 50 प्रतिशत तक बताया गया है.
गुप्ता का अनुमान है कि किसी खास दिन पर पराली जलाने का योगदान 40 से 70 प्रतिशत तक हो सकता है, जबकि पूरे महीने या जलाने के मौसम का औसत लें तो यह 20 से 30 प्रतिशत और सालाना औसत में 10 प्रतिशत से भी कम रह जाता है. उन्होंने कहा, ‘पराली जलाने के मौसम में उथली बॉउंड्री लेयर और कम तापमान जैसी मौसम संबंधी परिस्थितियां इस समस्या को और जटिल बना देती हैं.’
आग के समय में आया यह बदलाव वायु गुणवत्ता पर इसके असर को भी प्रभावित कर सकता है. कुछ मॉडलिंग अध्ययनों से संकेत मिलता है कि शाम के समय लगाई गई आग से रात के दौरान कण प्रदूषण का जमाव ज्यादा हो सकता है, क्योंकि रात में वायुमंडल की निचली परत (प्लैनेटरी बॉउंड्री लेयर) अपेक्षाकृत उथली होती है और हवाएं भी कमजोर रहती हैं, जिससे प्रदूषक तत्व वातावरण में जमा हो जाते हैं.













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