रांची, 5 अक्टूबर : जब पूरे देश में दुर्गा पूजा-विजयादशमी हर्ष और उल्लास के साथ मनाई जा रही है, तब झारखंड की असुर जनजाति के लिए यह शोक का वक्त है. महिषासुर इस जनजाति के आराध्य पितृपुरुष हैं. इस समाज में मान्यता है कि महिषासुर ही धरती के राजा थे, जिनका संहार छलपूर्वक कर दिया गया. यह जनजाति महिषासुर को 'हुड़ुर दुर्गा' के रूप में पूजती है. नवरात्र से लेकर दशहरा की समाप्ति तक यह जनजाति शोक मनाती है. इस दौरान किसी तरह का शुभ समझा जाने वाला काम नहीं होता. हाल तक नवरात्रि से लेकर दशहरा के दिन तक इस जनजाति के लोग घर से बाहर तक निकलने में परहेज करते थे. झारखंड के गुमला, लोहरदगा, पलामू और लातेहार जिले के अलावा पश्चिम बंगाल के पुरुलिया, मिदनापुर और कुछ अन्य जिलों में इनकी खासी आबादी है. पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले के केंदाशोल समेत आसपास के कई गांवों में रहने वाले इस जनजाति के लोग सप्तमी की शाम से दशमी तक यहां के लोग महिषासुर की मूर्ति 'हुदुड़ दुर्गा' के नाम पर प्रतिष्ठापित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं.
दूसरी तरफ, झारखंड के असुर महिषासुर की मूर्ति बनाकर तो पूजा नहीं करते, लेकिन दीपावली की रात मिट्टी का छोटा पिंड बनाकर महिषासुर सहित अपने सभी पूर्वजों को याद करते हैं. असुर समाज में यह मान्यता है कि महिषासुर महिलाओं पर हथियार नहीं उठाते थे, इसलिए देवी दुर्गा को आगे कर उनकी छल से हत्या कर दी गई. यह जनजाति गुमला जिला अंतर्गत डुमरी प्रखंड के टांगीनाथ धाम को महिषासुर का शक्ति स्थल मानती है. प्रत्येक 12 वर्ष में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की भी पूजा करने की परंपरा आज भी जीवित है. गुमला जिले के बिशुनपुर, डुमरी, घाघरा, चैनपुर, लातेहार जिला के महुआडाड़ प्रखंड के इलाके में भैंसा की पूजा की जाती है. यह भी पढ़ें : Paresh Mesta Murder Case: कर्नाटक भाजपा पीड़ित परिवार के साथ, फिर से जांच के समर्थन में
हिंदी की चर्चित कवयित्री और जनजातीय जीवन की विशेषज्ञ जसिंता केरकेट्टा ने झारखंड की असुर जनजाति की परंपरा को रेखांकित करते हुए ट्वीट किया है, "पहाड़ के ऊपर असुर आदिवासी महिषासुर की पूजा कर रहे हैं. पहाड़ के नीचे समतल में देश के अलग-अलग हिस्सों से आकर बसे लोग दुर्गा की पूजा कर रहे हैं. दोनों को देख रही. यह याद दिलाता है कि यह देश एक जाति का राष्ट्र नहीं है. कई राष्ट्रों से मिलकर बना बहुराष्ट्रीय देश है." मानव विज्ञानियों ने असुर जनजाति को प्रोटो-आस्ट्रेलाइड समूह के अंतर्गत रखा है. ऋग्वेद, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद्, महाभारत आदि ग्रंथों में कई स्थानों पर असुर शब्द का उल्लेख हुआ है. मुंडा जनजाति समुदाय की लोकगाथा 'सोसोबोंगा' में भी असुरों का उल्लेख मिलता है.
प्रसिद्ध इतिहासकार और पुरातत्व विज्ञानी बनर्जी एवं शास्त्री ने असुरों की वीरता का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे पूर्ववैदिक काल से वैदिक काल तक अत्यंत शक्तिशाली समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित थे. देश के चर्चित एथनोलॉजिस्ट एससी राय ने लगभग 80 वर्ष पहले झारखंड में करीबन सौ स्थानों पर असुरों के किले और कब्रों की खोज की थी. असुर हजारों सालों से झारखंड में रहते आए हैं. भारत में सिंधु सभ्यता के प्रतिष्ठापक के रूप में असुर ही जाने जाते हैं. राय ने भी असुरों को मोहनजोदड़ो और हड़प्पा संस्कृति से संबंधित बताया है. इसके साथ ही उन्हें ताम्र, कांस्य एवं लौह युग का सहयात्री माना है. बता दें कि झारखंड में रहनेवाली असुर जनजाति आज भी मिट्टी से परंपरागत तरीके से लौहकणों को निकालकर लोहे के सामान बनाती है.
जिस तरह महिषासुर को असुर जनजाति अपना आराध्य मानती है, उसी तरह संताल परगना प्रमंडल के गोड्डा, राजमहल और दुमका के भी कई इलाकों में विभिन्न जनजाति समुदाय के लोग रावण को अपना पूर्वज मानते हैं. इन क्षेत्रों में कभी रावण वध की परंपरा नहीं रही है और न ही नवरात्र में ये मां दुर्गा की पूजा-अर्चना करते हैं. बता दें कि वर्ष 2008 में झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री और झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन ने रावण दहन कार्यक्रम में शामिल होने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि महाज्ञानी रावण उनके कुलगुरु हैं. ऐसे में वे रावण का दहन नहीं कर सकते.