खुदीराम बोस: देश का सबसे युवा क्रांतिकारी, जिससे खौफजदा थी, अंग्रेजी हुकूमत! मृत्यु की सजा देनेवाला जज भी था उसकी राष्ट्रभक्ति से हैरान-परेशान!
खुदीराम बोस (Photo Credit- Wikimedia Commons)

अंग्रेजी हुकूमत से आजादी दिलाने का श्रेय लेनेवाली कांग्रेस भले ही अपनी पीठ थपथपाती हो, लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेज सरकार युवा क्रांतिकारियों से ज्यादा खौफ खाती थी. जिन्होंने ब्रिटिश फौज और अधिकारियों की नाक में दम कर रखा था. इन युवा क्रांतिकारियों से अंग्रेजी प्रशासन की दहशत का आलम यह था कि क्रांतिकारियों का दमन करते समय वे कानून की धज्जियां तक उड़ाने से बाज नहीं आते थे. इसका सबसे बड़ा प्रमाण थे किशोर वय के खुदीराम बोस. इन्हें जब फांसी पर चढ़ाया गया, उनकी उम्र मात्र 18 वर्ष थी, यानी वे नाबालिग थे. 11 अगस्त को देश भर में इस किशोर क्रांतिकारी की 111वीं पुण्य-तिथि मनायी जायेगी.

मंगल पाण्डे, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु और सुखदेव जैसे महान क्रांतिकारियों को कौन नहीं जानता! लेकिन स्वतंत्रता संग्राम की बलिवेदी पर कुछ ऐसे भी युवाओं ने आहुति दी, जिनकी जानकारी देश को नहीं के बराबर है, जो बालिग भी नहीं हुए थे, और हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर झूल गये, ऐसा ही एक युवा जोशीला और जुनूनी क्रांतिकारी था, खुदीराम बोस. कहा जाता है कि अंग्रेजी सरकार ने जब उसे फांसी पर लटकाया, वह केवल 18 वर्ष का था. जो उस समय के कानून के हिसाब से भी नाबालिग था. और नाबालिग को फांसी देने का कानून दुनिया के किसी संविधान में नहीं है.

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ऐसे पड़ा नाम खुदीराम

खुदीराम का जन्म 3 दिसंबर 1889 को प. बंगाल के मिदनापुर के बहुवैनी नामक गांव में बाबू त्रैलोक्यनाथ बोस के घर पर हुआ था. मां का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था. पिता रेवेन्यू एजेंट थे. खुदीराम के जन्म से पूर्व चूंकि उनके दो पुत्र अकाल मृत्यु के शिकार हो गये थे, लिहाजा माता-पिता के मन में यह भय था कि कहीं वह खुदीराम को भी न खो दें.

किसी ने उन्हें सलाह दी कि अगर खुदीराम को किसी को बेच दिया जाए तो उनकी जिंदगी बचाई जा सकती है. उन्होंने खुदीराम अपनी छोटी बेटी अपरूप को तीन मुट्ठी खुद्दी (अनाज का एक स्वरूप) में बेच दिया. तभी से उनका नाम खुदीराम पड़ा. खुदीराम मात्र 7 वर्ष के थे, जब उनके माता-पिता का देहांत हो गया था, उनकी परवरिश उनकी बहन ने की.

वे मृत्यु से कभी भयभीत नहीं हुए

खुदीराम को शिक्षा का विशेष अवसर नहीं मिला, क्योंकि होश संभालने के साथ ही उनके मन में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति नफरत भर चुकी थी. नौवीं कक्षा के पश्चात ही वह स्कूल और पढ़ाई से नाता तोड़ ब्रिटिश मुक्ति आंदोलन में कूद पड़े. देशभक्ति के उनके तेवर को देखते हुए उन्हें रिवोल्यूशनरी पार्टी का सदस्य चुन लिया गया. क्रांति की शुरूआत ‘वन्दे मातरम्’ लिखी पर्ची बांटने से हुई. जब वे मात्र 15 वर्ष के थे, ‘सोनार बांग्ला’ नामक पत्रिका की प्रतियां बांटने के आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, क्योंकि अंग्रेज सरकार ने इस पत्रिका पर प्रतिबंध लगा रखा था. लेकिन खुदीराम अंग्रेज अधिकारी को घायल करके वहां से भागने में सफल हो गये.

उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला. किन्तु नाबालिग होने के कारण वे सजा भोगने से बच गये. यद्यपि खुदीराम न कभी मौत की सजा से भयभीत हुए ना ही अंग्रेजों के दमनात्मक रवैये से. बल्कि समय के साथ अंग्रेजी हुकूमत के प्रति उनकी नफरत हर समय सरकार विरोधी कार्य करने के लिए उकसाती रहती थी. अंजाम की उन्हें चिंता या डर किंचित नहीं रहता था.

1907 में उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर मेदिनीपुर पुलिस स्टेशन में बम फेंका. इसी वर्ष के अंत यानी 6 दिसंबर को बंगाल स्थित नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर हुए बम विस्फोट कांड में भी खुदीराम का नाम सामने आया. लेकिन खुदीराम हमेशा किसी न किसी तरह से पुलिस को चकमा देकर भागने में कामयाब रहते थे.

क्रूर अंग्रेज अधिकारी किंग्सफोर्ड की हत्या से चूकने का मलाल

खुदीराम की अंग्रेजी हुकूमत के प्रति नफरत को देखते हुए उन्हें एक अन्य युवा क्रांतिकारी प्रफुल्ल चंद्र चाकी के साथ एक निर्दयी अंग्रेज ऑफीसर किंग्सफोर्ड की हत्या की जिम्मेदारी सौंपी गयी. किंग्सफोर्ड को मौत की नींद सुलाने के लिए दोनों मुजफ्फरपुर पहुंचे. 30 अप्रैल 1908 की रात 8 बजे एक घोडा-गाड़ी यूरोपियन क्लब से लौट रही थी, खुदीराम ने उसे किंग्सफोर्ड की गाड़ी समझकर उस पर बम फेंका. गाड़ी के चिथड़े उड़ गये. लेकिन उस गाडी में किंग्स्फोर्ड की जगह एक अंग्रेज ऑफीसर की पत्नी मिसेज केनेडी और उनकी बेटियां थीं, जिनकी तत्काल मृत्यु हो गयी थी.

खुदीराम वहां से भागने में सफल हो गये. तब अंग्रेजी प्रशासन ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिए उन पर 1000 रूपये के इनाम की घोषणा की. अंततः किसी की मुखबिरी के कारण पूसा रोड स्टेशन पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें गिरफ्तार करते समय भारतीय जनता जहां उनकी कम उम्र को देखते हुए भावुक थी, वहीं खुदीराम मुस्कुराते हुए ‘वन्दे मातरम्’ के नारे लगा रहे थे. हालांकि उन्हें इस बात का मलाल था कि वे किंग्सफोर्ड को नहीं मार सके

हंसते हुए चढ़ गये फांसी के तख्ते पर

खुदीराम अदम्य साहसी के प्रतीक थे. मुजफ्फरपुर जेल में मजिस्ट्रेट जब उन्हें फांसी की सजा सुना रहे थे, तो जज यह देखकर हैरान थे कि इतनी कम आयु के बालक के चेहरे पर मौत का कोई खौफ नहीं था. वह और भी हैरान-परेशान उस वक्त हुआ, जब मृत्यु की सजा सुनाने से पूर्व उसने खुदीराम से पूछा कि अगर तुम्हें कुछ समय के लिए जीवन-दान मिले तो क्या करोगे? बेखौफ खुदीराम का जवाब था कि बम बनाना सीखूंगा.

अंततः 11 अगस्त 1908 को देश का यह सबसे कम उम्र का युवा क्रांतिकारी खुदीराम बोस हंसते हुए फांसी के फंदे पर झूल गया. उस समय उसकी उम्र थी 18 वर्ष, 8 महीना 8 दिन. फांसी पर झूलते हुए खुदीराम की अंतिम इच्छा के अनुरूप उसके हाथ में भगवद गीता की प्रति थी.