देश की खबरें | कर्नाटक की समृद्ध संस्कृति के प्रदर्शन के साथ ऐतिहासिक ‘मैसुरु दशहरा’ समारोह का हुआ समापन

मैसुरु, 12 अक्टूबर विजया दशमी के अवसर पर शनिवार को महलों के शहर मैसुरू में शानदार जुलूस निकाले जाने के साथ ही 10 दिनों तक चलने वाले विश्व विख्यात ‘मैसुरु दशहरा’ उत्सव का भव्य समापन हो गया।

‘नाडा हब्बा’ (राजकीय उत्सव) के रूप में मनाया जाने वाला दशहरा या ‘शरण नवरात्रि’ उत्सव इस वर्ष भव्य रहा, जिसमें कर्नाटक की समृद्ध संस्कृति और परंपराओं की झलक देखने को मिली तथा राजसी शान-शौकत और वैभव की यादें ताजा हो गईं।

हजारों लोगों ने ‘जम्बू सवारी’ देखी, जिसमें 'अभिमन्यु' (एक हाथी) के नेतृत्व में एक दर्जन सजे-धजे हाथियों का जुलूस निकाला गया और वे मैसुरु एवं उसके (पूर्व) राजघराने की अधिष्ठात्री देवी चामुंडेश्वरी की मूर्ति को 750 किलोग्राम के हौदे या 'अम्बरी' पर रखकर ले गये।

भव्य शोभायात्रा की शुरुआत मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और उपमुख्यमंत्री डी के शिवकुमार द्वारा अंबा विलास महल के बलराम द्वार पर ‘नंदी ध्वज’ की पूजा-अर्चना के साथ हुई। यह पूजा शुभ मकर लग्न में दोपहर एक बजकर 41 मिनट से दो बजकर 10 मिनट तक चली।

नंदी ध्वज की पूजा करने के बाद सिद्धरमैया ने विजया दशमी के अवसर पर लोगों को बधाई दी।

इस शोभयात्रा में कई कलाकार और सांस्कृतिक संगठन शामिल थे तथा विभिन्न जिलों की झांकियां भी प्रदर्शित की गयीं। उन झांकियों में क्षेत्रीय संस्कृति एवं धरोहर को दिखाया गया। यह शोभयात्रा पांच किलोमीटर दूर बन्निमानटापा में समाप्त हुई।

सरकारी विभागों की झांकियां भी शोभयात्रा का हिस्सा रहीं और उन झांकियों में विभिन्न योजनाएं या कार्यक्रम और सामाजिक संदेशों को दर्शाया गया। शोभयात्रा के मार्ग में बड़ी संख्या में लोग खड़े थे।

मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री एवं अन्य गणमान्य लोगों ने शाम करीब पांच बजे हौदे में स्थापित चामुंडेश्वरी देवी पर फूल चढ़ाकर शोभायात्रा को विदा किया।

हाथी अभिमन्यु हौदी में स्थापित देवी की प्रतिमा को लेकर विशेष रूप से तैयार मंच पर पहुंचा।

दशहरा शोभायात्रा विजया दशमी के दिन निकाली जाती है जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है।

दशहरा विजयनगर साम्राज्य के शासकों द्वारा मनाया जाता था और यह परंपरा मैसूर के वाडियारों को विरासत में मिली थी। मैसूर में उत्सव की शुरुआत सबसे पहले राजा वाडियार प्रथम ने 1610 में की थी। लेकिन 1971 में ‘प्रिवी पर्स’ समाप्त किए जाने और तत्कालीन शासकों के विशेषाधिकारों को खत्म कर दिये जाने के बाद यह परिवार का निजी कार्यक्रम बन गया।

बाद में स्थानीय लोगों की पहल पर साधारण रूप से दशहरा मनाया जाता था परंतु बाद में राज्य सरकार आगे आयी और 1975 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डी देवराज उर्स ने उसे भव्य रूप में बहाल किया।

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