नयी दिल्ली, 26 नवंबर प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना ने मंगलवार को कहा कि सरकार के तीनों अंग को अंतर-संस्थागत संतुलन को बढ़ावा देकर संविधान प्रदत्त अपनी भूमिका का सम्मान करना चाहिए।
राष्ट्रीय राजधानी में आयोजित 75वें संविधान दिवस समारोह में प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि सरकार के तीनों अंग (कार्यपालिका, विधायिक और न्यायपालिका) एक-दूसरे के पूरक हैं।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘संविधान ने न्यायपालिका को चुनावी प्रक्रिया के उतार-चढ़ाव से अलग रखा है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि निर्णय निष्पक्ष और दुर्भावना से मुक्त हो तथा पूरी तरह संविधान और कानून द्वारा निर्देशित हो।’’
उन्होंने कहा, ‘‘साथ ही, सरकार का प्रत्येक अंग एक स्वतंत्र कक्षा में एक उपग्रह की तरह नहीं है, बल्कि आपस में संबद्ध हैं जो कुछ हद तक अलग-अलग काम करते हैं। प्रत्येक अंग को अंतर-संस्थागत संतुलन को बढ़ावा देकर, संवैधानिक रूप से सौंपी गई अपनी विशिष्ट भूमिका का सम्मान करना चाहिए। न्यायिक स्वतंत्रता एक ऊंची दीवार के रूप में नहीं, बल्कि उत्प्रेरक के रूप में काम करती है।’’
इस अवसर पर, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, केन्द्रीय कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत, अटार्नी जनरल आर वेंकटरमणि, उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने भी अपने विचार साझा किए।
वर्ष 1949 में संविधान सभा द्वारा भारत के संविधान को अंगीकार किये जाने के उपलक्ष्य में 2015 से हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है। उससे पहले, इस दिन को कानून दिवस के रूप में मनाया जाता था।
प्रधान न्यायाधीश खन्ना ने कहा कि भारतीय अदालतों में आने वाले मामलों की संख्या ‘‘चौंकाने वाली’’ है। उन्होंने कहा, ‘‘इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जिला न्यायालयों में 4.54 करोड़ से अधिक मामले और उच्च न्यायालयों में 61 लाख मामले लंबित हैं। यह संख्या चुनौती को दर्शाती है और नागरिकों के हमारे न्यायालयों पर गहरे विश्वास को दर्शाती है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘हमारी जिला अदालतों ने विशेष रूप से दीवानी मामलों में उल्लेखनीय सुधार और दक्षता दिखाई है। पिछले वर्ष हमारी जिला अदालतों ने 20 लाख से अधिक आपराधिक मामलों और 8 लाख से अधिक दीवानी मामलों का निस्तारण किया। शीर्ष न्यायालय में मामले के निस्तारण की दर 95 से बढ़कर 97 प्रतिशत हो गई है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘खुद को जांच के लिए खोलकर हम प्रणालीगत कमियों और बाधाओं का पता लगा सकते हैं और उन्हें खत्म करने की दिशा में काम कर सकते हैं।’’
उन्होंने न्यायपालिका में चिंता के कुछ क्षेत्रों को रेखांकित करते हुए कहा, ‘‘ये हैं लंबित मामले और लंबित मामलों की संख्या, फैसले में देरी, वाद दायर करने की लागत, बड़ी संख्या में विचाराधीन कैदी।’’
न्यायमूर्ति गवई ने कहा, ‘‘विशेष रूप से, हाशिए पर मौजूद समुदायों को संविधान में निहित मूल्यों से ताकत मिली है। वे अक्सर अपने अधिकारों की वकालत करने के लिए सिद्धांतों का सहारा लेते हैं।’’
उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन के अध्यक्ष कपिल सिब्बल ने इस बात पर जोर दिया कि गणतंत्र में जनता केंद्र बिंदु होती है, न कि सरकारी तंत्र।
उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि न्यायालयों सहित सरकार के सभी अंग संविधान के प्रति अपने कर्तव्य के प्रति सजग रहें।
वरिष्ठ अधिवक्ता ने इस बात पर जोर दिया कि संवैधानिक न्यायालय सरकार को ‘‘हमारे गणतंत्र में जनता के केंद्र बिंदु होने’’ का स्मरण दिलाने की भूमिका निभाते हैं, क्योंकि वे असंगत कार्य की पड़ताल करते हैं और सरकार की ज्यादतियों को रोकते हैं। इस प्रक्रिया में पीठ और ‘बार’ दोनों ही बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
सिब्बल ने अपने संबोधन में, सरकार को दी गई असीम शक्ति के प्रति आगाह किया, जो गणतंत्र की मूल अवधारणा के विरुद्ध है। उन्होंने कहा कि जिन उदाहरणों में सरकार द्वारा कानून का इस्तेमाल निजी और राजनीतिक एजेंडे के लिए किया गया, वह ‘‘कानून का शासन’’ से भटकाव है।
इस अवसर पर, बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा ने शीर्ष अदालत के साथ-साथ उच्च न्यायालयों से आग्रह किया कि वे कुछ राजनीतिक नेताओं द्वारा मौलिक अधिकारों के संबंध में भारतीय संविधान के भाग-3 के प्रावधानों के ‘‘शर्मनाक और खतरनाक दुरुपयोग’’ पर ध्यान दें और केंद्र के साथ मिलकर काम करें।
इस साल अगस्त में भाजपा के टिकट पर राज्यसभा के सदस्य चुने गए मिश्रा ने कहा, ‘‘जब सत्ता में बैठे मुट्ठी भर राजनीतिक नेता अपने क्षेत्रों की जनसांख्यिकी को बदलने का प्रयास कर रहे हों, तो उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को अपनी आंखें नहीं मूंद लेनी चाहिए। न्यायपालिका को (प्रधानमंत्री नरेन्द्र) मोदी जी और केंद्र सरकार के साथ मिलकर काम करना होगा।’’
मिश्रा ने कहा, ‘‘कुछ राजनीतिक नेताओं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का दुरुपयोग करने की आदत है। वोट की राजनीति के लिए संविधान की पुस्तिका का माखौल उड़ाना, आरक्षण के नाम पर लोगों को गुमराह करना, इस तरह के दुरुपयोग के ज्वलंत उदाहरण हैं।’’
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