ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए बड़े पैमाने पर जिम्मेदार मीथेन गैस के उत्सर्जन को कम करने के लिए गायों की डकारों में उसकी मात्रा घटाने की कोशिश की जा रही है.अमेरिका के डेविस शहर में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी (यूसी) के एक वैज्ञानिक ने जब दो महीने के बछड़े "थिंग 1" के मुंह से एक लंबी ट्यूब उसके पेट तक डाली, तो यह जलवायु परिवर्तन में गायों की भूमिका कम करने की कोशिश का हिस्सा था. यह रिसर्च प्रोजेक्ट गायों के मीथेन उत्सर्जन को रोकने के लिए चल रहा है.
पोस्टडॉक्टोरल रिसर्चर पाउलो डी मियो फिल्हो एक ऐसी दवा बनाने पर काम कर रहे हैं, जो गायों के पेट के बैक्टीरिया को बदलकर मीथेन उत्पादन कम कर सके.
मीथेन और जलवायु संकट
हालांकि, मीथेन का उत्सर्जन जीवाश्म ईंधनों और कुदरती स्रोतों से भी होता है, लेकिन गायों के कारण इसका उत्सर्जन जलवायु के लिए बड़ी चिंता बन गया है.
कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के एनिमल साइंस प्रोफेसर एरमियास केब्रेब ने कहा, "वैश्विक तापमान में अब तक हुई बढ़त का लगभग आधा हिस्सा मीथेन की वजह से है.”
मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड के बाद जलवायु परिवर्तन का दूसरा सबसे बड़ा कारक है. कार्बन डाई ऑक्साइड की तुलना में मीथेन जल्दी टूटती है लेकिन कहीं ज्यादा ताकतवर है. यही वजह है कि दुनियाभर में वैज्ञानिक गायों से मीथेन उत्सर्जन को घटाने पर काम कर रहे हैं. जैसे कनाडा में एक तकनीक विकसित की गई है, जिससे ऐसी गाय पैदा होंगी जो कम मीथेन उत्सर्जित करेंगी.
केब्रेब ने बताया, "मीथेन वातावरण में लगभग 12 साल रहती है, जबकि कार्बन डाइऑक्साइड सदियों तक रहती है. अगर अभी मीथेन कम करना शुरू करें, तो तापमान पर इसका असर जल्दी दिख सकता है.”
रिसर्च का तरीका
फिल्हो ट्यूब का इस्तेमाल कर "थिंग 1" के पहले पेट, जिसे रूमेन कहते हैं, से तरल निकालते हैं. इसमें आंशिक रूप से पचा हुआ खाना होता है. वैज्ञानिक इन तरल नमूनों का इस्तेमाल उन माइक्रोब्स (सूक्ष्मजीवों) का अध्ययन करने के लिए कर रहे हैं, जो हाइड्रोजन को मीथेन में बदलते हैं.
यह गैस गाय पचा नहीं पाती और इसे डकार के जरिए बाहर निकालती है. एक गाय सालाना लगभग 100 किलो मीथेन गैस छोड़ती है.
थिंग 1 और दूसरे बछड़ों को समुद्री शैवाल से युक्त आहार दिया जा रहा है, जो मीथेन उत्पादन को कम करता है. वैज्ञानिक चाहते हैं कि इसी प्रभाव को जीन-संपादित माइक्रोब्स के जरिए हासिल किया जाए. ये माइक्रोब्स हाइड्रोजन को सोख लेंगे और मीथेन बनाने वाले बैक्टीरिया को बढ़ने नहीं देंगे.
लेकिन टीम सावधानी बरत रही है. यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मथियास हेस ने चेतावनी दी, "हम मीथेन बनाने वाले बैक्टीरिया को पूरी तरह खत्म नहीं कर सकते, क्योंकि हाइड्रोजन जमा होने से गाय को नुकसान हो सकता है.”
उन्होंने कहा, "माइक्रोब्स आपस में एक सामाजिक व्यवस्था में रहते हैं. वे एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं, और उनके रिश्ते पूरे इकोसिस्टम को प्रभावित करते हैं.”
हेस की टीम बायोरिएक्टर्स में अलग-अलग फॉर्मूले का परीक्षण कर रही है. ये बायोरिएक्टर्स गाय के पेट जैसी स्थिति तैयार करते हैं.
बड़े लक्ष्य और फंडिंग
यह प्रोजेक्ट यूसी डेविस और यूसी बर्कली के इनोवेटिव जीनोमिक्स इंस्टिट्यूट (आईजीआई) के सहयोग से चल रहा है. आईजीआई वैज्ञानिक सही माइक्रोब खोजने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे जीन-संपादित कर मीथेन बनाने वाले माइक्रोब्स की जगह दी जाएगी. संशोधित सूक्ष्मजीवों को पहले प्रयोगशाला में और फिर जानवरों पर टेस्ट किया जाएगा.
केब्रेब ने कहा, "हम न केवल मीथेन उत्सर्जन कम करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि चारे की उपयोगिता भी बढ़ा रहे हैं. हाइड्रोजन और मीथेन दोनों ऊर्जा हैं. अगर हम इस ऊर्जा को मीथेन में जाने से रोककर किसी और काम में लगाएं, तो उत्पादकता बढ़ेगी और उत्सर्जन घटेगा.”
अंतिम लक्ष्य एक ऐसी दवा बनाना है, जो जीवन के शुरुआती चरण में ही दी जा सके. ऐसा इसलिए, क्योंकि ज्यादातर मवेशी खुले में चरते हैं और उन्हें रोजाना सप्लीमेंट देना संभव नहीं है. तीन रिसर्च टीमों को इसके लिए सात करोड़ डॉलर और सात साल का समय दिया गया है.
केब्रेब लंबे समय से पर्यावरण के अनुकूल मवेशी पालन पर शोध कर रहे हैं. वह मांस की खपत कम करने की वकालत का विरोध करते हैं.
उन्होंने कहा कि यह विकसित देशों के स्वस्थ वयस्कों के लिए तो संभव है, लेकिन इंडोनेशिया जैसे देशों में नहीं, जहां सरकार मांस और डेयरी उत्पादन बढ़ाना चाहती है क्योंकि पांच साल से कम उम्र के 20 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. उन्होंने कहा, "हम उन्हें मांस न खाने के लिए नहीं कह सकते.”
वीके/सीके (एएफपी)