नयी दिल्ली,16 सितंबर उच्चतम न्यायालय ने विशेष विवाह कानून के कुछ प्रावधानों को चुनौती देने वाली एक याचिका पर बुधवार को केंद्र से जवाब मांगा। इन प्रावधानों के तहत दो वयस्कों को अपने विवाह से पहले पड़ताल के लिये अपना व्यक्तिगत ब्योरा सार्वजिनिक करना होगा।
याचिका में कहा गया है कि ऐसा करने पर विवाह एवं निजता के मूल अधिकारों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।
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प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और न्यायामूर्ति रामसुब्रमण्यन की तीन सदस्यीय पीठ ने केरल के कानून की एक छात्रा द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई के लिये सहमति व्यक्त करते हुये केन्द्र को नोटिस जारी किया।
छात्रा ने दावा किया है कि विशेष विवाह कानून के कुछ प्रावधान विवाह के इच्छुक जोड़ी के मूल अधिकार का हनन करते हैं, उन्हें संविधान की अनुच्छेछ 21 के तहत प्रदत्त निजता के अधिकार से वंचित करते हैं।
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पीठ ने कहा, ‘‘नोटिस जारी किया जाए।’’
वीडियो कांफ्रेंस के जरिये हुई सुनवाई के दौरान पीठ ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वकील से पूछा, ‘‘आप हमें बताइये कि क्या समाधान है?’’
पीठ ने कहा, ‘‘जिस क्षण आप से हटा देंगे (उल्लेख किये गये प्रावधानों को), वे लोग प्रभावित होंगे जिनके लिये इसे लागू किया गया था। ’’
याचिकाकर्ता नंदिनी प्रवीण की ओर से पेश हुए वकील ने न्यायालय के उस ऐतिहासिक फैसले का उल्लेख किया, जिसमें निजता के अधिकार को संविधान के तहत मूल अधिकार घोषित किया गया था।
वकील ने कहा कि याचिका निजता के मुद्दे को उठाती है और यह व्यक्ति की गरिमा के बारे में भी है।
इस पर पीठ ने टिप्पणी की, ‘‘आप निजता के बारे में पूरी दुनिया के इस बारे में जान जाने के बारे में कह रहे हैं। लेकिन इसके सकारात्मक बिंदु को भी देखिए। ’’
रिट याचिका के जरिये विशेष विवाह कानून की धारा छह (2), सात, आठ और 10 को अनुचित, अवैध तथा अंसवैधानिक करार देते हुए रद्द करने का अनुरोध किया गया है।
याचिका में कहा गया है कि ये प्रावधान पक्षों को विवाह से 30 दिन पहले अपना निजी ब्योरा सार्वजनिक पड़ताल के लिये रखने की जरूरत को जिक्र करते हैं।
इसमें कहा गया है कि प्रावधान किसी व्यक्ति को विवाह पर आपत्ति दर्ज कराने की भी अनुमति देता है और विवाह अधिकारी को ऐसी आपत्तियों की छानबीन करने की शक्ति देता है।
याचिका में कहा गया है कि विवाह से पहले नोटिस देना हिंदू विवाह अधिनियम और इस्लाम में परंपरागत विवाह में भी अनुपस्थित है। इसलिए यह प्रावधान भेदभावपूर्ण है तथा अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का हनन करता है।
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