नयी दिल्ली, चार जुलाई दिल्ली उच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि शिकायतकर्ता की शिकायत को सत्यापित करने के लिए उसका नार्को विश्लेषण, पॉलीग्राफ या ब्रेन मैपिंग जैसी जांच कराने लिए दबाव नहीं बनाया जा सकता और यह जांच एजेंसियों का कार्य है कि सच का पता लगाए।
अदालत ने इसके साथ ही उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया जिसमें अनुरोध किया गया था कि शिकायतकर्ता की ये जांच कराने के निर्देश दिए जाए ताकि शिकायत की सत्यता का पता लगाया जा सके। याचिका में यह भी कहा गया था कि इससे फर्जी शिकायतों में कमी आएगी।
मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा की अध्यक्षता वाली पीठ ने अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई करते हुए टिप्पणी की है कि कानून ने उस व्यक्ति को उपचारात्मक उपाय दिए हैं जिसके खिलाफ फर्जी शिकायत दर्ज कराई गई है और यह स्थापित व्यवस्था है कि अदालतें जांच में हस्तक्षेप नहीं करेंगी और यह पूरा विषय जांच एजेंसी का है।
पीठ ने तीन जुलाई को पारित आदेश में कहा, ‘‘ संविधान आरोपी के लिए विशेष प्रावधान करता है। झूठी शिकायत होने पर कानून में अन्य उपचारात्मक उपाय भी हैं।’’
अदालत ने कहा, ‘‘उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए निश्चित तौर पर आरोपी के खिलाफ जांच शुरू करने से पहले शिकायतकर्ता को झूठ का पता लगाने के लिए ब्रेन मैपिंग, पॉलीग्राफ, नार्को एनलिसिस, लाई डिटेक्टर जांच से गुजरने के लिए मजबूर नहीं कर सकते।’’
इस पीठ में मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद भी शामिल थे।
अदालत ने कहा, ‘‘ब्रेन मैपिंग, पॉलीग्राफ जांच, नार्को एनलिसिस, लाई डिटेक्टर आदि की जांच की विश्वसनीयता को लेकर अब भी बहस हो रही है, ऐसे में अदालतें अधिकारियों को शिकायत की सत्यता का पता लगाने के लिए ऐसी जांच करने के संबंध में आदेश पारित नहीं कर सकतीं... याचिका खारिज की जाती है।’’
अदालत ने कहा कि अगर इस याचिका को स्वीकार किया जाता है तो शिकायतकर्ता को और अपमान का सामना करना पड़ेगा खासतौर पर महिलाओं को जिनकी संरक्षा के लिए दंड प्रक्रिया संहिता में विशेष व्यवस्था की गई है।
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