अगर आपको लगता है कि जर्मनी कुशल और समय पर फैसले लेने वाला देश है, तो बहुत मुमकिन है कि आप यहां नहीं रहते होंगे. जर्मन सरकार और प्रशासन पर लोगों का भरोसा न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुका है.समय-समय पर गच्चा देने वाली ट्रेनें, सरकारी दफ्तरों में लंबी कतारें, बड़ी मुश्किल से डॉक्टर का अपॉइंटमेंट, प्री-स्कूलों में दाखिले के लिए सिरदर्दी, ये मौजूदा जर्मनी की कुछ सच्चाइयां हैं. जर्मनी की सरकारी सेवाएं, जनता की हर दिन की जरूरतें पूरी करने में ही हांफ रही हैं.
और जनता भी इसे समझ रही है. सिर्फ 27 फीसदी लोगों को लगता है कि जर्मनी का सरकारी तंत्र अपनी जिम्मेदारियां निभा रहा है. जर्मन सिविल सर्वेंट एसोसिएशन (डीबीबी) के सर्वे का यही निचोड़ है. सर्वे के नतीजे इसी हफ्ते जारी किए गए हैं.
जर्मनी की सरकारी प्रणाली पर इतना कम भरोसा, लोगों ने पहली बार जताया है. डीबीबी हर साल यह सर्वे करती है. 2020 और 2021 में महामारी के दौरान भी जन प्रशासन पर भरोसा काफी ज्यादा था. तब यह आंकड़ा 56 और 45 फीसदी था. लेकिन ताजा सर्वे दिखाता है कि फिलहाल जर्मनी के सरकारी तंत्र पर लोगों का भरोसा 2019 के मुकाबले भी सात फीसदी कम है.
नेतृत्व की तलाश
डीबीबी के चैयरपर्सन उलरिष जिल्बरबाख इन नतीजों को "चेतावनी भरा" बताते हैं. 22 अगस्त को पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा, "जनता क्या चाहती है - और मसलन जन सेवकों से - यह सामान्य है: राज्य को अपने काम पूरे करने चाहिए और लोगों को लिए उपलब्ध रहना चाहिए." आगे जिल्बरबाख ने कहा, "लोग अलग राज्यसत्ता नहीं चाहते हैं, लेकिन वे एक कुशल सत्ता चाहते हैं."
जर्मनी कई चुनौतियों से जूझ रहा है. महामारी से उबरने की कोशिश के दौरान यूक्रेन में युद्ध शुरू हो गया. इसी दौरान पश्चिमी देशों और चीन के संबंधों में कड़वाहट नए स्तर पर पहुंच गई. देश के भीतर और बाहर राजनीतिक वातावरण काफी बदल चुका है.
लंबे समय तक जर्मनी का नेतृत्व करने वाली अंगेला मैर्केल ने 2021 में चांसलर पद और राजनीति को अलविदा कह दिया. मैर्केल की छवि एक कुशल प्रशासक की थी. वह असहमतियों के बावजूद राजनीतिक रास्ते खोजने में माहिर थीं. जर्मनी में कोविड-19 का असर शुरू होते ही मैर्केल ने ज्यादा इंटरव्यू दिए.
वह कठिन समय में देशवासियों को भरोसा दिलाती रहीं कि सब कुछ नियंत्रण में है. इसके चलते उनकी पार्टी सीडीयू और सरकार पर भरोसा बहुत ज्यादा था. महामारी को नकारने वाले लोगों की अच्छी-खासी संख्या के बावजूद मैर्केल मुश्किल वक्त में कुशल नेतृत्व करने में सफल रहीं.
मैर्केल के बाद जर्मनी के चांसलर बने ओलाफ शॉल्त्स, जनता से बहुत कम मुखातिब होने के कारण आलोचना झेल रहे हैं. उनकी गठबंधन सरकार के भीतर कई मुद्दों पर असहमतियां सामने आ रही हैं और शॉल्त्स भीतरी खींचतान में फंसे दिखाई पड़ रहे हैं.
जिल्बरबाख कहते हैं, "हम ऐसे कालखंड में रह रहे हैं, जहां जनता को दिशा और नेतृत्व चाहिए. हमारे पास चांसलरी में अभी वो शख्स हैं, जिन्होंने कभी कहा था, 'जो मुझसे नेतृत्व मांगते हैं, उन्हें ये मिलता है.' लेकिन ऐसा लगता है जैसे जनता के बीच यह बात पैठ नहीं बना सकी है."
छवि का असर
चांसलर शॉल्त्स की अप्रूवल रेटिंग फिलहाल करीब 43 फीसदी है. पोलिटबैरोमीटर के मुताबिक यह एक नई निचली दर है. पोलिटबैरोमीटर सर्वे, सार्वजनिक ब्रॉडकास्टर जेडीएफ समय-समय पर करता है. डीबीबी के सर्वे के नतीजे जनता का रुझान साफ तौर पर दिखाते हैं. इसी तरह के कुछ और सर्वे भी हैं. सबके नतीजों में एक बात समान है कि जर्मनी में धुर दक्षिणपंथी पार्टी, एएफडी की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है.
जिल्बरबाख चिंता जताते हुए कहते हैं कि ये उभार सामाजिक तनाव का कारण बन सकता है. खासतौर पर एकीकरण के पहले वाले दोनों जर्मनियों के बीच. पुराने पूर्वी जर्मनी में एएफडी का आधार बहुत मजबूत हो रहा है. वहां सरकार को नागरिकों की जरूरतें पूरी करने में नाकाम मानने वालों की संख्या बढ़ रही है.
जनता का रुख सिर्फ सर्वे या प्रदर्शनों में ही नहीं दिखता है. यह बात मीडिया और राजनीतिक विमर्श में भी नजर आती है. संघीय स्तर पर विपक्ष, जर्मन सरकार को असमंजस से भरा बताने में सफल हो रहा है. उसका तर्क इशारा कर रहा है कि भीतरी कलह के चलते चांसलर नेतृत्व नहीं कर पा रहे हैं. ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती और सामाजिक लाभ सिस्टम में सुधार समेत कई नीतियों में बदलाव के लिए कानून में संशोधन की जरूरत है. असहमतियों के कारण यही नहीं हो पा रहा है.
इसी हफ्ते सरकार में शामिल लिबरल बिजनेस फ्रेंडली पार्टी एफडीपी के "ग्रोथ ऑपर्च्यूनिटी" बिल को ग्रीन पार्टी की नेता और परिवार मामलों की मंत्री लीजा पॉज ने रोक दिया. पॉज ने आलोचना करते हुए कहा कि बिल, बाल कल्याण से ज्यादा कंपनियों को टैक्स में रियायत देने पर फोकस करता है.
लालफीताशाही की चुनौती
यह बिल और उस पर हो रही तकरार तो सिर्फ एक नमूना है. ऐसे कई मुद्दे हैं, जिन पर गठबंधन के भीतर खींचतान की वजह से मामला आगे नहीं बढ़ पा रहा है. मंत्रालयों के कामकाज से जुड़े कई रेग्युलेशन भी इस रफ्तार को और धीमा कर रहे हैं. राइनिषे पोस्ट अखबार को दिए एक इंटरव्यू में जर्मनी के आर्थिक मामलों के मंत्री रॉबर्ट हाबेक ने इस प्रक्रिया को "ब्यूरोक्रैसी का जंगल" कहा.
इस लेटलतीफी के बीच चांसलर शॉल्त्स ने एक हालिया कारोबारी आयोजन के दौरान कहा कि उनकी कैबिनेट, ग्रोथ ऑपर्च्यूनिटी बिल को इस महीने के अंत तक पास कर देगी. चांसलर ने कहा, "इसके साथ ही हम ब्यूरोक्रैसी को तोड़ रहे हैं और निवेश को बढ़ावा दे रहे हैं, खासतौर पर रिसर्च एंड डिवेलपमेंट में और क्लाइमेट फ्रेंडली प्रोडक्शन में."
जर्मन अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में है. चांसलर ने कहा, "सबसे ऊपर, हम हर तरह की कंपनियों का भार हल्का करने जा रहे हैं."
सिविल सर्विस और चुनी गई सरकार, ये दोनों ब्यूरोक्रेसी के एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. एक साइड की नाकामी दूसरे को प्रभावित करती है. डीबीबी के सर्वे में आधे से ज्यादा नौकरशाहों ने कहा कि वे मौखिक या शारीरिक हिंसा का शिकार हुए हैं.
डीडीबी के प्रवक्ता फ्रांक त्सितका ने डीडब्ल्यू से कहा, "इसीलिए हम जन प्रशासन के दूरगामी डिजिटलीकरण और प्रशासनिक बाधाओं को कम करने की मांग कर रहे हैं. अति नियमावली, फिजूल की रिपोर्टिंग जरूरतों को दूर किया जाए और अनुमति और एप्लीकेशन की प्रोसेसिंग तेज की जाए."
जन प्रशासन कैसे काम करेगा, वो किन नियमों के साये में आगे बढ़ेगा, यह तय करना अब नीति निर्माताओं के हाथ में है. जाहिर है इस प्रक्रिया में वक्त लगेगा, राजनीति भी होगी और पैसा भी खर्च होगा.