फतेहगढ़ साहिब (पंजाब): इतिहास के पन्नों में दर्ज सिखों और मुगलों के संग्राम की दुखद दास्तान को यादों में संजोए फतेहगढ़ शहर की इस पवित्र धरती पर धार्मिक सौहार्द की मिसाल देखने को मिलती है, जहां मस्जिद और गुरुद्वारा एक ही परिसर में हैं. दिलचस्प बात यह है कि मस्जिद की देखरेख का जिम्मा भी गुरुद्वारे के ग्रंथी ही संभाल रहे हैं.
महदियां गांव में स्थित सफेद चितियां मस्जिद को दूरस्थ खेतों से भी देखा जा सकता है. पंजाब के इन गांवों में आज भी मुगल काल की कुछ स्थापत्य कला के अनेक उदाहरण मिलते हैं मगर सिख बहुल इलाका होने के कारण यहां गुरुद्वारों की बहुलता है. फहेतगढ़ साहिब का गुरुद्वारा सैकड़ों सिखों का तीर्थस्थल है, जहां पूरी दूनिया से सिख तीर्थयात्री पहुंचते हैं.
सिखों के तीर्थस्थल में स्थित यह प्राचीन मस्जिद यहां मुगलों के आक्रमण और सिखों पर ढाए कहर की चश्मदीद है.
बताया जाता है कि मुगल बादशाह औरंजगजेब की फरमान को तामील करने के लिए यहां से पांच किलोमीटर दूर सरहिंद के नवाब वजीर खान ने सिखों के दशवें गुरु गोविंद सिंह के दो पुत्र फतेह सिंह (7) और जोरावर सिंह (9) को 1705 में जिंदा दफना दिया था. इस्लाम कबूल करने से मना करने पर दोनों मासूमों को ऐसा क्रूर दंड दिया गया था.
गुरु गोविंद सिंह के छोटे बेटे फतेह के नाम पर ही शहर का नाम फतेहगढ़ पड़ा. यह शहर चंडीगढ़ से 45 किलोमीटर दूर है और सिखों का पवित्र तीर्थस्थल है. यहां मासूम साहिबजादाओं की शहादत को याद रखने के लिए हर साल मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें बहुतायत में सिख समुदाय के लोग पहुंचते हैं. दुखद व हिंसा का इतिहास रहने के बावजूद मस्तगढ़ साहिब चितियां गुरुद्वारों के ग्रंथी जीत सिंह ने पुरानी मस्जिद की मरम्मत और रखरखाव का जिम्मा उठाया.
जीत सिंह ने आईएएनएस से बातचीत में कहा, "मैं पिछले चार साल से मस्जिद के रखरखाव का कार्य संभाल रहा हूं. मैं जब यहां आया था तो मस्जिद काफी बदहाल थी. मैंने रोज मस्जिद के भीतर की सफाई करवाई."
उन्होंने बताया कि यह जानते हुए कि यहां कोई मुसलमान नमाज अदा करने नहीं आता है फिर भी धार्मिक स्थल की पवित्रता कायम रखने के लिए उन्होंने मस्जिद की मरम्मत और सफाई करवाई.
जीत सिंह ने बताया कि माना जा रहा है कि यह मस्जिद 350 साल पुरानी है। सिखों के धार्मिक नेता अर्जुन सिंह सोढी द्वारा गुरुगं्रथ साहिब मस्जिद के भीतर रखने के बाद से इसे खुला छोड़ दिया गया. एक सदी पहले मस्जिद का उपयोग गुरुद्वारे के रूप में होता था.
उन्होंने कहा, "संगत ने उसके बाद मस्जिद परिसर में ही एक नया गुरुद्वारा बनवाने का फैसला लिया क्योंकि मस्जिद पुरानी हो गई थी और इसकी दीवार व गुंबदों की हालत जर्जर थी. गुरुद्वारा अब बन चुका है और उसमें गुरुग्रंथ साहिब रखा जा चुका है. फिर भी हम मस्जिद की देखभाल कर रहे हैं और इसके रखरखाव का ध्यान रख रहे हैं."
मस्जिद और गुरुद्वारा पास-पास हैं जो चार दीवारी से घिरे परिसर में सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल है. मस्जिद की दीवारों व भवनों का नियमित रूप से सफाई और सफेदी की जाती है. मस्जिद के भीतर कुछ भी नहीं रखा जाता है.
जीत सिंह ने कहा, "मैंने इस स्थान के इतिहास को खंगाला है और इलाके के बुजुर्ग सिखों और मुसलमानों से बात की है. कहा जाता है कि इस मस्जिद के काजी ने साहिबजादों की मौत की निंदा की थी. उन्होंने कहा था कि बच्चों को ऐसी मौत नहीं दी जानी चाहिए."
उन्होंने बताया कि 20वीं सदी की शुरुआत में जब मस्जिद का उपयोग गुरुद्वारे के रूप में किया जाने लगा तो पड़ोस के बस्सी पठाना के मुसलमानों ने एतराज जताया. मगर पटियाला के तत्कालीन महाराजा ने हस्तक्षेप किया और मामले को सुलझाया. तब से वर्षो तक मस्जिद में गुरुद्वारा चलता रह.
इस मस्जिद-गुरुद्वारा परिसर में ही अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ निवास कर रहे मृदुभाषी जीत सिंह ने बताया कि समीप के गांवों में मुसलमान समुदाय के अनेक लोग निवास करते हैं जिनकी खुद की अलग मस्जिदें हैं. यहां कोई नमाज अदा करने नहीं आते हैं मगर हमारी ओर से किसी के आने पर रोक नहीं है. हम सभी धर्मो का सम्मान करते हैं.
इतिहासकारों का मानना है कि इस मस्जिद का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां के शासनकाल 1628-1658 के दौरान किया गया.
सिखों और मुगलों की लड़ाई में भी मस्जिद बची रही. सिखों ने 1710 में वजीर खान को पराजित कर इस इलाके पर अपना कब्जा जमाया. आक्रमण की चश्मदीद रही यह मस्जिद बुरे दौर में भी सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे की मौन साक्षी बनी रही.