भारत में प्राचीनकाल से गुरु को उसकी महानता के कारण ईश्वर से बड़ा दर्जा दिया गया है. धर्मशास्त्रों में भी गुरू को ईश्वर के विभिन्न रूपों ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में वर्णित किया गया है. गुरु को ब्रह्मा इसलिए कहा गया है, क्योंकि वह शिष्य को गढ़ता है. नवजीवन देता है. गुरू ही विष्णु भी है, क्योंकि वह शिष्य की हर मुश्किल घड़ी में उसकी रक्षा करता है और गुरू ही महादेव भी है, क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों एवं अवगुणों का संहार करता है.
भारत की धरा पर अनादिकाल से ऋषि-मुनियों और साधु संतों का प्रभाव रहा है. हर दैवीय पद्धति से उसकी पूजा-अर्चना होती रही है. जिस तरह प्रत्येक कार्य विशेष के लिए एक विशेष दिन निर्धारित होता है. उसी तरह गुरू-पूजन की परंपरा के महत्व को ध्यान में रखते हुए ‘व्यास पूर्णिमा’, ‘गुरु पूर्णिमा’, ‘पूनम’ अथवा ‘आषाढ़ी पूनम’ नाम निर्धारित किया गया है. अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से इस वर्ष गुरु पूर्णिमा का पर्व 16 जुलाई को है.
भारत की पहचान है उसकी आध्यात्मिक धरोहर. बदलते समय एवं परिस्थितियों के अनुसार इसे आध्यात्मिक जीवन में उतारने की अद्भुत कला भी भारतीय ऋषि-मुनियों ने ही दुनिया को सिखाई है. स्वयं कष्ट उठाकर जो व्यक्ति समाज को उन्नति के मार्ग पर लेने जाने का प्रयास करता है, ऐसे महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का पर्व ही सही मायने में ‘गुरु पूर्णिमा’ है. महाभारत काल के महर्षि वेद व्यास जी से शायद ही कोई अपरिचित होगा. व्यास जी ने ही चार वेदों का विभाग किया, अठारह पुराणों के अलावा श्रीमद्भभागवत की रचना की. उन्हें गुरु-शिष्य परंपरा का प्रथम गुरू माना गया है.
कैसे बनें वेद व्यास ‘जगत गुरु’
वेद व्यास जी का मानना था कि यदि किसी व्यक्ति से ज्ञान मिलता है तो वह हमारे लिए गुरू समान है, पूज्यनीय है, फिर भले ही वह कोई छोटा सा जीव-जंतु अथवा अति सामान्य मनुष्य ही क्यों न हो. व्यास पूर्णिमा का पर्व हमारी संस्कृति, सभ्यता, हमारे धर्म, जीवन और सिद्धांत, की प्रेरणा और प्रकाश के स्त्रोत का उदय पर्व है. भगवान व्यासदेव जब वेद व्यास के ज्ञाता हुए तो उन्होंने वेद शास्त्र को व्यवस्थित कर, उनका विभाजन किया और ब्रह्मसूत्र, महाभारत और पुराणों की रचना कर जब पूर्ण वेद के ज्ञान को विश्व में प्रतिष्ठित किया. जिससे उन्हें ‘जगत गुरू’ का नाम प्राप्त हुआ.
वेद व्यास जी ने जब एक भील को माना अपना गुरू
शास्त्रों में एक बहुत रोचक घटना का उल्लेख है. एक बार मुनिवर वेद व्यास जी ने भील जाति के एक व्यक्ति को पेड़ झुकाकर उससे नारियल तोड़ते देखा. व्यास जी समझ नहीं सके, कि यह चमत्कार भला कैसे हो सकता है. उस दिन से प्रतिदिन व्यास जी ने उस व्यक्ति का पीछा करना शुरू किया. वस्तुतः वे वह विद्या सीखना चाहते थे, किंतु वह व्यक्ति संकोच और डर के कारण वेद व्यास से दूर भागता था. एक दिन पीछा करते-करते व्यास जी उस व्यक्ति के घर पहुंच गए. वहां वह व्यक्ति तो नहीं बल्कि उनका पुत्र अवश्य मिल गया. पुत्र ने व्यास जी की सारी बातें सुनी और अगले दिन वह उन्हें अमुक मंत्र देने को तैयार हो गया. अगले दिन व्यास जी उसके घर पर उपस्थित हुए और पूरी श्रद्धा और शिद्दत से वह मंत्र सीखा. घर में ही छिपे पिता ने जब यह सब देखा तो उसने पुत्र को बताया कि उसने व्यास जी को यह विद्या क्यों नहीं सिखाया.
दरअसल मेरे मन में यह बात घुमड़ रही थी कि जिस व्यक्ति से मंत्र लिया जाता है, वह गुरू-तुल्य हो जाता है, फिर वह चाहे किसी भी जाति अथवा वर्ण का हो. हम लोग बहुत गरीब और निम्न वर्ग के हैं. क्या व्यास जी हमारा यथोचित सम्मान करेंगे? क्योंकि अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो वह मंत्र फलित नहीं होगा. अच्छा होगा कि तुम वहां जाओ और व्यास जी की परीक्षा लो, कि वह तुम्हें अपने समान आदर देते हैं या नहीं. अगले दिन पुत्र व्यास जी की कुटिया में पहुंचा. व्यास जी उस समय अपने साथियों के साथ किसी विषय विशेष पर विचार-विमर्श कर रहे थे. लेकिन जब उन्होंने अपने गुरू को आता देखा तो दौड़कर व्यास जी उसके पास आये, और उनका चरण स्पर्श एवं पूजन कर उसका गुरू के समान मान-सम्मान किया. पुत्र व्यास जी से बहुत प्रभावित हुआ. उधर भील को जब पुत्र ने अपने सम्मान की सारी कहानी सुनाई, तो उसके भील ने कहा कि उसकी सारी दुविधाएं मिट चुकी हैं. क्योंकि जो व्यक्ति एक छोटे से व्यक्ति को भी गुरू समान महत्व और सम्मान देता है, वह व्यक्ति वाकई परम पूज्यनीय है. तभी से गुरु-शिष्य परंपरा में व्यास जी को अग्रणी गुरू माना जाने लगा.