Martyrs' Day: मोहनदास करमचंद गांधी के जीवन का प्रथमार्ध बताता है कि उनके पिता रसूखवाले एवं धनी थे. उनकी लाइफ स्टाइल के छपे लेख बताते हैं अपने युवाकाल में वह कई अनैतिक कार्यों में भी लिप्त थे. वे ख्यातिप्राप्त बैरिस्टर भी थे, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आजादी की पूरी लड़ाई उन्होंने मात्र एक धोती पहनकर की. और अंततः अंग्रेजों को भारत से खदेड़ कर ही माना. क्या किसी व्यक्ति के जीवन में इतना उतार-चढ़ाव संभव है कि एक बदमिजाज युवक से वह महात्मा की पदवी हासिल कर ले? सच्चाई जानने के लिए हमें गांधीजी के जीवन सफर के कुछ पन्ने पढ़ने होंगे..
मोहनदास गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर में हुआ था. पिता करमचंद्र पोरबंदर रियासत के राजा के दीवान थे. मां पुतलीबाई गांधी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं. माँ ने मोहनदास को तीन बातें जीवन में उतारने की सलाह दी थी, पहला किसी भी परिस्थिति में असत्य नहीं बोलेंगे, दूसरा अहिंसावादी को बढ़ावा देंगे और तीसरा ताउम्र शाकाहार रहेंगे.
बुरी लत के शिकार
अच्छी एवं अंग्रेजी शिक्षा के लिए वे राजकोट चले गये. 13 साल की उम्र में उनका विवाह एक साल बड़ी कस्तूर कपाड़िया से हुआ. इन्हीं दिनों वे कुछ बुरी लत के भी शिकार हुए. जब पिता करमचंद्र की मृत्यु हुई तब वे उनके पास नहीं थे, इस बात का मलाल उन्हें बहुत था. बंबई के भावनगर कॉलेज में पढ़ते हुए उन्हें लंदन के इनर टेम्पल में कानून की पढ़ाई करने का अवसर मिला. लंदन की आबोहवा में वे बुरी शोहबत के शिकार हुए. यहां तक की उन्हें बदमिजाज भी कहा गया.
बदलाव की वह पहली प्रक्रिया
लंदन में ही मोहनदास को थियोसॉफिकल सोसायटी से जुड़ने का अवसर मिला. यहां की संस्कृति ने उनके मन में माँ के उन वचनों की याद ताजा करा दी, जिसे वे भूल चुके थे. उन्होंने उसी समय सारे बुर कर्म छोड़ने का फैसला कर लिया. क़ानून की पढा़ई अच्छे नंबरों से पास कर वे भारत लौटकर प्रैक्टिस करने लगे, लेकिन अपना पहला मुकदमा हार गये. इसी दौरान उनके साथ कुछ और अप्रिय घटना घटी.
माँ के सिद्धांतों का पालन करना
उन्हीं दिनों उन्हें एक मुकदमे के लिए दक्षिण अफ्रीका से बुलावा आया. वह दक्षिण अफ्रीका चले तो गये, लेकिन उनके साथ एक ऐसी घटना घटी, जिसने उनके जीवन के नजरिये को ही बदल दिया. वे फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट में सफर कर रहे थे, लेकिन टीसी ने उन्हें समान समेत फेंक दिया. दक्षिण अफ्रीका में अप्रवासी भारतीयों के साथ यह आम घटना थी. लेकिन मोहनदास यह अपमान सह नहीं सके. उन्होंने इस भेदभाव के खिलाफ नटाल सूबे में पहला आंदोलन छेड़ा. मां के सिद्धांतों का प्रतिपादन उन्होंने इसी आंदोलन से शुरू किया. उनकी लड़ाई के मूल हथियार उनके अहिंसावादी विचार थे. उन्होंने मांसाहार भी छोड़ा और सदा सत्य बोलने की कसम खाई. यहीं से उन्होंने सफेद धोती पहननी शुरू की.
मोहनदास की महात्मा बनने की प्रक्रिया
उन दिनों साउथ अफ्रीका में भारतियों पर तीन पौंड का अतिरिक्त टैक्स लगता था. मोहनदास ने भारतीय मूल के कृषकों, मजदूरों, खनन कर्मियों को एकजुट किया और इस दोहरी नीति के खिलाफ लगभग ढाई हजार लोगों के साथ मिलकर सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ दिया. परिणामस्वरूप साउथ अफ्रीका की अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर उन्हें 9 माह के लिए जेल भेज दिया. लेकिन उनकी गिरफ्तारी से हालात इतना बेकाबू हो गया कि अंग्रेज सरकार को यू टर्न लेते हुए भारतीयों पर लगाया गया टैक्स वापस लेना पड़ा. यहीं से मोहनदास ‘महात्मा’ गांधी के नाम से लोकप्रिय होने लगे थे.
ट्रेन कांड का बनाया आंदोलन का फार्मूला
ब्रिटिश सरकार के खिलाफ गांधीजी ने अपनी इस जीत को वहां के अखबारों द्वारा खूब प्रचारित करवाया. वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय हो गये. भारत वापसी पर अखिल भारतीय कांग्रेस ने उन्हें हाथों-हाथ लिया. इसके पूर्व तक कांग्रेस धनी लोगों की पार्टी होती थी. साउथ अफ्रीका में ट्रेन कांड में मिली सफलता ने गांधी जी को एक नई दशा दिशा दे दी थी. उन्होंने तय किया कि वे संपूर्ण भारत में थर्ड क्लास में सफर करके भारतीयों को करीब से देखेंगे. उन्होंने पाया कि अंग्रेजी हुकूमत ने भारतीयों पर अत्याचार की इन्तहा पार कर दी है. इसी समय ब्रिटिश सरकार ने मनमर्जी से कानून चलाने वाला रौलट एक्ट कानून पास किया. गांधीजी के दिशा निर्देशन में हजारों की भीड़ ने सड़कों पर प्रदर्शन किया.
गांधीजी की अहिंसात्मक नीति से भयभीत अंग्रेज सरकार
इस प्रर्दशन में जगह-जगह हिंसा और आगजनी हुई. उधर अमृतसर में जनरल डायर ने हजारों की संख्या में शांति प्रर्दशन करनेवालों अंधाधुंध फायरिंग करवा दिया, जिसमें 400 से भी ज्यादा लोग मारे गए, कइयों को जिंदा दफना दिया गया. अधिसंख्य भारतीय को गांधीजी की अहिंसावादी नीति पसंद आई. आजादी का दावानल बुरी तरह पूरे भारत में फैल चुका था. अंग्रेजों ने गांधीजी पर कई बार देशद्रोह का मुकदमा दर्जकर उन्हें जेल भेजा. हालांकि वे गांधीजी के प्रति देशवासियों के मन में बढ़ते विश्वास का लोहा मानने लगे थे. लिहाजा लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में मजबूरीवश एकमात्र गांधीजी को बुलवाना पड़ा.
गोलमेज सभा और अंग्रेजी सरकार का नकारात्मक रवैया
लंदन में गोलमेज सभा गांधीजी के लिए सकारात्मक परिणाम वाला नहीं रहा. ब्रिटिश सरकार आसानी से भारत को स्वतंत्र नहीं करने वाले थे. गांधीजी के पक्ष में एक अहम कमजोरी यह जाहिर हुई कि मुसलमान, सिख और कुछ अन्य धर्म के लोग गांधीजी के पक्ष में नहीं थे. गोलमेज सभा का एक यह लाभ जरूर मिला कि गांधीजी को ब्रिटिश हुकूमत के सिरमौर जार्ज पंचम से रूबरू मिलने का अवसर मिला वहीं लंकाशायर के मिल मजदूरों की समस्याएं भी सुनीं. ब्रिटेन के अखबारों ने गांधी जी की हर गतिविधियों को सुर्खियों से छापा.
अंग्रेजों ‘भारत छोड़ो’ की हुंकार
दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हो चुकी थी. ब्रिटिश फ़ौज दक्षिण-पूर्व एशिया में हारने लगी थी. तय था कि जापान भारत पर हमला करेगा. उधर मित्र देश अमेरिका, रूस व चीन भी ब्रिटेन पर भारतीयों का समर्थन पाने का दबाव डाल रहे थे. उन्होंने स्टेफ़ोर्ड क्रिप्स को मार्च, 1942 ई. में भारत भेजा. ब्रिटिश सरकार भारतीय सैनिकों को द्वितीय विश्व युद्ध में धकेलना तो चाह रही थी मगर भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देने के पक्ष में नहीं थी. गांधीजी ने न केवल क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों को ख़ारिज किया बल्कि 1 अगस्त को इलाहाबाद (प्रयागराज) में मीटिंग कर 8 अगस्त, 1942 ई. को बम्बई (मुंबई) में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का आंदोलन छेड़ दिया. इस आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन हासिल हुआ. अंग्रेज भयाक्रांत होकर पहले गांधीजी को बाद में कस्तूरबा को कैद कर लिया. दोनों को पूना स्थित आगा खां महल में कैद किया गया था. अंग्रेजों की इस कार्रवाई ने आग में घी का काम किया. पूरे देश में हिंसक आंदोलन शुरू हो गए.
दो टुकड़ों में मिली आजादी
जेल में ही कस्तूरबा की मौत हो गई. लेकिन अंग्रेज झुकने के लिए तैयार नहीं थे. लंबे समय बाद गांधीजी रिहा हुए. भारतीयों द्वारा नित आज़ादी की मांग और धरना-प्रदर्शन से अंग्रेजी हुकूमत के लिए नाक का बाल साबित होने लगी. उन्हें समझ में आ चुका था कि अब संपूर्ण आजादी लिये बिना ना गांधी मानेंगे न ही भारतवासी. लॉर्ड माउंटबेटेन ने संगठित भारत को आजाद करने के बजाय उसके दो हिस्से किये एक भारत और दूसरा पाकिस्तान. गांधीजी ऐसी आजादी नहीं चाहते थे. बंटवारे के कारण भारी संख्या में दोनों पक्षों की हत्याएं हुईं. इस घटना से गांधी जी बहुत दुःखी थे.
गांधीजी के अंतिम शब्द ‘हे राम’
गांधीजी ने उन मुसलमानों की सुरक्षा को लेकर आमरण अनशन शुरू किया था, जिन्होंने पाकिस्तान से ज्यादा भारत में खुद को सुरक्षित माना था. एक दिन वह ‘महात्मा’ हमेशा की तरह प्रार्थना के लिए जा रहे थे, एक कट्टरपंथी ने उनके सीने पर तीन गोलियां चलाईं. गांधीजी ‘हे राम’ कहते हुए गिर पड़े. यह देश का दुर्भाग्य ही था कि एक बिगड़े हुए युवक ने स्वयं को महात्मा के रूप में ढालकर अपने देशवासियों को अंग्रेजों की दासतां से मुक्ति दिलाई, उन्हीं में एक भारतीय ने उनके साथ ऐसा कृत्य कर दिया.
नोट- इस लेख में दी गई तमाम जानकारियों को प्रचलित मान्यताओं के आधार पर सूचनात्मक उद्देश्य से लिखा गया है और यह लेखक की निजी राय है. इसकी वास्तविकता, सटीकता और विशिष्ट परिणाम की हम कोई गारंटी नहीं देते हैं. इसके बारे में हर व्यक्ति की सोच और राय अलग-अलग हो सकती है.