देशभर में दिवाली (Diwali) की तैयारियां जोरो-शोरों से चल रही है. घरों की सजावट से लेकर खरीददारी तक लोग आजकल दिवाली की ही तैयारियों में जुटे हैं. देवभूमि उत्तराखंड में भी दिवाली का उत्साह देखा जा रहा है. उत्तराखंड (Uttarakhand) में दिवाली को कुछ अलग अंदाज में मनाया जाता है. स्थानीय भाषा में इसे 'बग्वाल' कहा जाता है. उत्तराखंड में दिवाली के 11 दिन बाद भी एक दिवाली मनाई जाती है. जिसे 'इगास' कहते हैं. यानी उत्तराखंड में लोग दो बार दिवाली मनाते हैं. दिवाली के दिन यहां दीप मालाओं से घरों की सजावट की जाती है लेकिन पारंपरिक तरीकों से दिवाली मनाने वाले लोग पटाखों को उतना महत्व नहीं देते हैं. पटाखों के स्थान पर पहाड़ी लोग भैलो खेलकर दिवाली मनाते हैं.
पहाड़ों में रंगोली के स्थान पर घरों के आंगनों और चौखटों को ऐपण से सजाया जाता है. ऐपण लाल और सफेद रंग से बनाई जाने वाली लोक कला है. देवभूमि के पकवान यहां के त्योहारों का मजा और बढ़ा देते हैं. दिवाली के दिन लक्ष्मी-गणेश की पूजा के साथ-साथ प्रकृति की भी पूजा करने का रिवाज रहा है. पहाड़ों में प्राकृतिक जलस्रोत (धारा, पंदेरा), भूमि देवता (भूम्याल), पहाड़ों और नदियों की भी पूजा की जाती है. त्योहारों में सामूहिक रूप से झुमैलों (स्थानीय नृत्य) किया जाता है. समुह में सभी भैलो खेलते हैं.
भैलो खेलने के लिए भीमल की छाल के रेशों से तैयार रस्सी पर चीड़ की छिल्ले के गुच्छों को बांधकर भैला तैयार किया जाता. इन भैलो को मशाल की तरह जलाकर लोग नाचते-गाते सिर के ऊपर गोल-गोल घुमाकर आंनद से त्योहार मनाते हैं. यह पूरा कार्यक्रम देर रात तक चलता है. इस दौरान गढ़वाली और कुमाउनी गीत गाए जाते हैं. दिवाली के समय झिलमिल-झिलमिल, फिर बौड़ी ऐ ग्ये बग्वाल, दिवा जगी गैनि जैसे गीत खूब आए जाते हैं.