कार्तिक मास की शुक्लपक्ष के 11वें दिन देवउत्थान एकादशी मनाई जायेगी. इसे देव प्रबोधिनी अथवा देव उठनी एकादशी भी कहते हैं. चार मास की योग निद्रा के बाद इसी दिन श्रीहरि के जागृत होने से इस एकादशी का हिंदू धर्म में बहुत ज्यादा महत्व है. कार्तिक मास की शुक्लपक्ष की एकादशी के दिन भगवान श्री हरि के योग निद्रा में जागने के कारण सनातन धर्म में इस दिन का और इस एकादशी का महत्व बहुत ज्यादा बढ़ जाता है. इस दिन को को देव उत्थान एकादशी के अलावा देव उठनी अथवा देव प्रबोधिनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन मान्यतानुसार माता तुलसी के साथ भगवान शालिग्राम का पूरे विधि-विधान के साथ विवाह रचाया जाता है. इसके बाद से ही देवशयनी के दिन से शुभ समारोहों पर लगा प्रतिबंध हट जाता है, और हिंदू घरों में एक बार फिर शहनाइयां गूंजने लगती हैं. अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार 14 नवंबर 2021 रविवार के दिन देवोत्थान एकादशी का व्रत एवं श्रीहरि की पूजा सम्पन्न होगी.
देवोत्थान एकादशी का महात्म्य
देवोत्थान एकादशी का वर्णन स्कंद पुराण एवं महाभारत में भी है. महाभारत के अनुसार एक बार धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा सर्वश्रेष्ठ एकादशी एवं उसके महात्म्य के प्रश्न पर भगवान श्रीकृष्ण उन्हें बताया था कि मानव कल्याण के लिए वैसे तो सभी एकादशी का विशेष महत्व है, लेकिन चातुर्मास के पश्चात श्रीहरि जागृत अवस्था में आने के पश्चात एक बार पुनः ब्रह्माण्ड का कार्य संचालन संभालते हैं. इसलिए उनका षोडशोपचार विधि से पूजा अनुष्ठान करना आवश्यक होता है. इस व्रत एवं पूजा से जातक की सारी मनोकामनाएं पूरी हो होती है. उसके सारे पाप नष्ट होते हैं और जीवन के अंत में उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है. देवोत्थान एकादशी का महात्म्य इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि इसी दिन श्रीहरि के शालिग्राम स्वरूप की तुलसी से विवाह की परंपरा निभाई जाती है, और अगले दिन से सनातन धर्म में विवाह समेत सभी मंगल कार्य प्रारंभ हो जाते हैं. यह भी पढ़ें : Chhath Puja 2021: राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने छठ पूजा के अवसर पर देशवासियों को शुभकामनाएं दीं
देवोत्थान एकादशी पूजा (14 नवंबर, रविवार 2021) का शुभ मुहूर्त
एकादशी प्रारंभ 05.48 AM (14 नवंबर 2021)
एकादशी समाप्त 06.39 AM (15 नवंबर 2021)
विशेषः एकादशी का सूर्योदय 14 नवंबर के दिन होने के कारण देव प्रबोधिनी एकादशी का व्रत एवं पूजन इसी दिन होगा.
पूजा विधिः
कार्तिक मास एकादशी (14 नवंबर) को सूर्योदय के समय उठकर स्नान-दान करें. स्वच्छ वस्त्र पहनकर भगवान विष्णु का ध्यान कर व्रत एवं पूजा का संकल्प लें. इसके पश्चात घर के मंदिर में स्थापित भगवान विष्णु एवं माता लक्ष्मी को गंगाजल से स्नान कराने के पश्चात धूप-दीप प्रज्जवलित कर उनका आह्वान मंत्र का जाप करते हुए उन्हें रोली-अक्षत का तिलक लगायें, विष्णु स्तुति का गायन करते हुए पीला फूल, पीला चंदन, मौसमी फल, दूध से बनी मिठाई, अक्षत, सुपारी, पान, तुलसी पत्ता आदि अर्पित करें. अगर संभव है तो श्रीहरि को पीला वस्त्र भी चढ़ाएं.
विष्णुजी का मंत्र
उत्तमोत्तिष्ठ गोविंद त्यागी निद्रम जगतपट्टे।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ वराह दस्तोधृतवसुंधरे।
हिरण्याक्षप्रणाघाटिन त्रिलोकी मंगलम कुरु।
इयें तू द्वादशी देव प्रबोधय विनीरमिता।
तवायव सर्वलोकन हितार्थं शेषायिन।
यह व्रतं माया देव कृतं प्रीतै तव प्रभु।
कम पूर्णता यतु त्वत्वप्रसादजनार्दन।
पूजा सम्पन्न होने के पश्चात ब्राह्मण को दान-दक्षिणा देकर विदा करें. चढ़े हुए प्रसाद को लोगों में वितरित करें तथा अगले दिन स्नान कर व्रत का पारण करें.