Dayanand Saraswati Jayanti 2022: जानें दयानंद सरस्वती ने किन-किन कुरीतियों की खिलाफत की! क्या था उनकी अकाल मृत्यु का रहस्य?
दयानन्द सरस्वती जयंती की शुभकामनाएं, (फोटो क्रेडिट्स: फाइल फोटो)

स्वामी दयानंद सरस्वती आधुनिक भारत के महान चिंतक, समाज-सुधारक एवं आर्य समाज के संस्थापक थे. उन्होंने वेदों के प्रचार-प्रसार और आर्यावर्त को स्वंत्रता दिलाने के लिए बंबई में आर्य समाज की स्थापना की. वे महज संन्यासी नहीं थे, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लोगों को एकजुट करने के अलावा समाज में व्याप्त कुरीतियों स्त्री-शिक्षा की खिलाफत, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, सती-प्रथा, वर्ण भेद आदि को खत्म करने के भी अथक प्रयास किये. 26 फरवरी 2022 को स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती मनायी जायेगी. इस अवसर पर आइये जानें समाज के लिए उन्होंने किन-किन कुरूतियों का विरोध किया और कैसे उनकी रहस्यमयी तरीके से हत्या की गयी.

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की दशमी के दिन राजकोट के करीब स्थित एक गांव टंकारा (गुजरात) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उस समय उनका नाम मूलशंकर था. पिता का नाम करशन लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था. मूलशंकर जब कैशोर्य अवस्था में पहुंचे, माता-पिता ने उनका विवाह तय कर दिया, लेकिन मूलशंकर ने निश्चय किया कि उनका जन्म विवाह कर गृहस्थ जीवन बसाने के लिए नहीं हुआ है. अंततः साल 1846 में एक रात वह बिना किसी से बताये घर-बार छोड़ देश भ्रमण पर निकल गये.

1857 के विद्रोह का बने हिस्सा!

घर छोड़ने के बाद स्वामीजी ने सर्वप्रथम 1857 के अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलनों में हिस्सा लेना शुरु किया. भारत-भ्रमण करते हुए उन्होंने पाया कि भारतीय ब्रिटिश हुकूमत की दमनात्मक रवैये से काफी नाराज हैं. उन्होंने लोगों को एकजुट करना शुरु किया. उऩका समाज में भी काफी मान-सम्मान था. तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा और हाजी मुल्ला खां जैसी हस्तियां उनसे काफी प्रभावित थीं. स्वामीजी ने सबको एकजुट करने के लिए इसे ‘रोटी और कमल’ का प्रतीक बनाया. 'स्वराज' का नारा स्वामीजी ने ही दिया था, जिसे बाद में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने आगे बढ़ाया. लेकिन अंग्रेजों ने दमनात्मक तरीके से इस आंदोलन को दबा दिया. तब स्वामीजी ने लोगों को समझाया कि सैकड़ों वर्ष पुरानी गुलामी से आजादी पाने में अभी वक्त लगेगा.

आर्य समाज की स्थापना!

मुगलों और अंग्रेजी हुकूमत में सैकड़ों साल की गुलामी ने हिंदुओं के वेद परंपरा को लगभग ध्वस्त कर दिया था. स्वामी दयानंद सरस्वती ने वैदिक ज्ञान प्राप्त कर हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार किया था, क्योंकि शिक्षा के अभाव में वे जानते थे कि लोगों को संस्कृत समझाना आसान नहीं होगा. उन्होंने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए 10 अप्रैल 1875 को बम्बई (अब मुंबई) में चैत्र मास की नवरात्रि के दिन आर्य समाज की नींव रखते हुए नारा बुलंद किया, ‘वेदों की ओर लौटो’. दो साल बाद 1877 में उन्होंने लाहौर में आर्य समाज की शाखा स्थापित कर इसे आर्य समाज का मुख्य केन्द्र बनाया.

जबरन धर्म परिवर्तन का विरोध!

स्वामी दयानंद को जब पता चला कि धर्म परिवर्तन के मामले निरंतर बढ़ते जा रहे हैं, तब उन्होंने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को फिर से हिंदू बनने की प्रेरणा दी. साल 1886 में लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना भी की. स्वामी दयानंद सरस्वती ने ना सिर्फ हिंदू बल्कि ईसाई और इस्लाम धर्म में फैली बुराइयों का भी विरोध किया. उन्होंने अपने महाग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में व्याप्त बुराइयों का खण्डन किया. यह भी पढ़ें : Gajanan Maharaj Prakat Din 2022 Greetings: गजानन महाराज प्रकट दिन पर ये ग्रीटिंग्स HD Wallpapers और GIF Images के जरिये भेजकर दें शुभकामनाएं

सती-प्रथा का विरोध!

उस काल में सती-प्रथा का प्रचलन जोरों पर था. इस पर प्रतिबंध लगाने और इसे रोकने के लिए यूं तो राजा राममोहन राय ने काफी प्रयास किये, लेकिन आंशिक सफलता के बावजूद सती-प्रथा पर पूर्ण प्रतिबंधित नहीं लगाया जा सका. राजा राममोहन राय के बाद स्वामी जी ने भी सती-प्रथा को भी कानूनन प्रतिबंधित करवाने के प्रयास किये. उन्होंने मानव से मानव का आदर करने का उपदेश देते हुए उन्हें प्रेम और परोपकार का अर्थ समझाया. वे समझते थे कि ऐसा करने से सती-प्रथा की बुराइयों को लोग समझ सकेंगे.

स्त्री शिक्षा को अहमियत!

दुर्भाग्यवश भारत की गुलामी के दौर तक स्त्री-शिक्षा को गंभीरता से नहीं लिया गया. यद्यपि सावित्री बाई फुले से लेकर स्वामी दयानंद जैसे समाजसुधारकों ने काफी प्रयास किये कि स्त्री घर की चौखट पार कर किताबी शिक्षा हासिल कर समाज के उत्थान की एक कड़ी बने. इस दिशा में स्वामी दयानंद सरस्वती ने समाजोत्थान में स्त्री शिक्षा के लिए काफी प्रयास किये. उनका मानना था कि नारी सशक्तिकरण से ही समाज का विकास होगा. जीवन के हर क्षेत्र में समाज को नारी को सहभागी बनाना होगा, तभी समाज और देश उन्नत्ति करेगा.

बाल-विवाह एवं विधवा-विवाह का विरोध!

उन दिनों बाल-विवाह एवं विधवा-विवाह जैसी कुप्रथा का काफी प्रचलन था. लोग इसे परंपरा का हिस्सा मानकर बड़ी सहजता से इसका निर्वहन करते थे. स्वामी दयानंद जी ने ऐसे लोगों की सोच को बदलने के लिए इस तरह की कुप्रथाओं के विरुद्ध जागरुक करने का प्रयास किया. उन्होंने लोगों को जागरुक करते हुए बताया कि मनुष्य का प्राथमिक जीवन 25 वर्षों तक ब्रह्मचर्य के होते हैं. इसलिए इसका पालन करना हमारा पहला धर्म है. अंततः स्वामी दयानंद सरस्वती और ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के अथक प्रयास से साल 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित हुआ.

कैसे हुई स्वामी जी की मृत्यु?

देशभर में स्वामी दयानंद सरस्वती की पहचान सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक कर्मकांडों का खंडन करने वाले स्वामी के रूप में होने लगी थी. परिणामस्वरूप उनके इर्द-गिर्द दुश्मन भी इकट्ठे होने लगे थे. किसी ने उन पर पत्थर बरसाये, किसी ने नदी में डुबोने की कोशिश. लेकिन स्वामी जी हर बार बच जाते थे, लेकिन अंततः दुश्मनों को कामयाबी मिली और इस महान समाज सुधारक को 30 अक्टूबर 1883 की शाम अजमेर में उन्हें जहर देकर किसी ने मौत की नींद सुला दिया.