बीते दो-तीन सालों में जातिगत जनगणना की मांग ने जोर पकड़ा है. समर्थक इसे गैर-बराबरी खत्म करने की दिशा में जरूरी मानते हैं. वहीं, आलोचकों का कहना है कि इससे सामाजिक विभाजन बढ़ने का खतरा है.भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए जनगणना एक बहुत महत्वपूर्ण प्रक्रिया है. विशेषज्ञों के मुताबिक, इससे देश की आबादी के साथ-साथ लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति से जुड़े अहम ब्योरे मिलते हैं.
जनगणना के दौरान लोगों की सिर्फ गिनती ही नहीं की जाती, बल्कि उनके घर-परिवार की स्थिति, धर्म, भाषा, शिक्षा और रोजगार आदि के बारे में भी पूछा जाता है. 2011 में हुई पिछली जनगणना में लोगों से कुल 29 सवाल पूछे गए थे, लेकिन इनमें जाति से जुड़ा प्रश्न शामिल नहीं था.
क्या पहले की जनगणनाओं में जाति पूछी जाती थी?
आजादी से पहले जनगणना में सभी लोगों की जाति पूछी जाती थी. 1947 में देश के आजाद होने के बाद जाति संबंधित आंकड़े इकट्ठे ना करने का फैसला लिया गया. डर था कि जाति पूछने से जाति व्यवस्था की जड़ें और गहरी होती जाएंगी. हालांकि, अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) वर्ग के लोगों की गिनती जारी रही. यानी देश में एससी-एसटी वर्ग के लोगों की गिनती तो होती है, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और सामान्य वर्ग के लोगों की गिनती नहीं की जाती.
अब पिछले दो-तीन सालों से कई राजनीतिक पार्टियां और संगठन जाति जनगणना करवाने की मांग कर रहे हैं, जिससे हर वर्ग और जाति की आबादी पता चल सके. हालांकि, केंद्र सरकार पहले ही जाति जनगणना करवाने से इनकार कर चुकी है. नरेंद्र मोदी सरकार ने 2021 में संसद में कहा था कि ओबीसी की जनगणना करने की कोई योजना नहीं है. फिर भी इसकी मांग लगातार जोर पकड़ रही है.
जातिगत जनगणना पर बंटी हुई है राय
सतीश देशपांडे, बेंगलुरु के 'इंस्टिट्यूट फॉर सोशल एंड इकॉनमिक चेंज' में समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं. उन्होंने 'वर्ग एवं जाति असमानता' पर काफी काम किया है. उनकी राय जातिगत जनगणना के पक्ष में है. इसकी जरूरत पर बात करते हुए उन्होंने डीडब्ल्यू हिंदी से कहा, "इससे (कास्ट सेंसस) हमें समाज में मौजूद गैर-बराबरी का पूरा एहसास होगा. कोई इसके अस्तित्व से इनकार नहीं कर पाएगा."
दूसरी तरफ, दिल्ली विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और 'स्वदेशी जागरण मंच' के सह-संयोजक अश्विनी महाजन जातिगत जनगणना की जरूरत से इनकार करते हैं. वह कहते हैं, "जातिगत जनगणना का राजनीतिक उपयोग होने की आशंका है. एससी-एसटी वर्ग की जनगणना पहले से होती रही है. उसके अलावा किसी भी प्रकार की जातिगत जनगणना से समाज विभाजित होगा."
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पक्ष और विपक्ष की इस बहस के बीच जाति जनगणना के लिए जनता का समर्थन बढ़ता दिख रहा है. इंडिया टुडे समूह साल में दो बार 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे करवाता है. फरवरी में हुए सर्वे में 59 फीसदी लोगों ने जाति जनगणना का समर्थन किया था. अगस्त में हुए ताजा सर्वे में यह संख्या बढ़कर 74 फीसदी पर पहुंच गई.
क्या सिर्फ जातियों की आबादी गिनना पर्याप्त होगा?
जातिगत जनगणना की मांग नई नहीं है. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए-2 (2009 से 2014) के शासनकाल में भी जाति आधारित जनगणना की मांग जोर-शोर से उठी थी. इसी क्रम में सरकार ने 2011 में 'सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना' करवाई थी. उसमें इकट्ठा किया गया जाति संबंधी आंकड़ा अभी तक जारी नहीं किया गया है. अब फिर से उसी तरह की जनगणना करवाने की मांग की जा रही है.
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कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने 24 अगस्त को इस विषय पर एक लंबा सोशल पोस्ट लिखा. इसमें उन्होंने लिखा, "एक व्यापक सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना होकर रहेगी. इसमें सिर्फ लोगों की गिनती नहीं होगी, बल्कि यह बताएगी कि दौलत और संपत्ति किसके पास है. कौन से समुदाय सबसे ज्यादा हाशिये पर हैं. देश के सरकारी, व्यावसायिक, मीडिया और न्यायपालिका से जुड़े संस्थानों में किसका प्रतिनिधित्व है और किसका नहीं है."
प्रोफेसर सतीश की राय भी इससे मिलती-जुलती है. उन्होंने डीडब्ल्यू हिंदी से कहा, "सिर्फ जातियों की आबादी गिनने से कोई फायदा नहीं होगा. उसके साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक आंकड़े इकट्ठा करना भी जरूरी है, ताकि पता चल सके कि आज कौन सा समुदाय किस हालत में हैं. किन राज्यों में और समुदाय के किस अंश पर ध्यान देना जरूरी है." वह आगे कहते हैं कि भारत के बड़े समुदायों में अंदरूनी गैर-बराबरी भी बहुत है, जिसे पहचानना भी जरूरी है.
जातिगत जनगणना से क्या बदलेगा?
कास्ट सेंसस के समर्थक उम्मीद जताते हैं कि इससे पिछड़ी जातियों के लिए स्थिति बेहतर हो जाएगी. उनकी आबादी और आर्थिक-सामाजिक स्थिति के बारे में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध होगी, तो उनके उत्थान और जनकल्याण के लिए बेहतर नीतियां बनाई जा सकेंगी. हालांकि, इसके कुछ अन्य पहलू भी हैं.
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राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार में इस विषय पर एक लेख लिखा है. इसमें वह सवाल उठाते हैं, "जातिगत जनगणना कई अन्य नीतिगत सवालों के लिए भी जरूरी है. जैसे- क्या एससी/एसटी/ओबीसी कोटा के अंदर उप-वर्गीकरण होना चाहिए? क्या कुछ जातियों को ओबीसी कोटा का लाभ नहीं मिलना चाहिए? क्या एससी/एसटी वर्ग में भी क्रीमी लेयर होनी चाहिए." इन सभी सवालों के जवाब जातिगत जनगणना से प्राप्त होने वाले आंकड़ों में मिल सकते हैं.
जातिगत जगनणना के बाद आरक्षण में बदलाव की मांग भी उठ सकती हैं. प्रोफेसर सतीश का मानना है कि यह मांग उठेगी और इसका सामना करना पड़ेगा. वह कहते हैं, "जातिगत जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, आरक्षण में बदलाव होना चाहिए. सरकारी नौकरियां एक तरह के संसाधन हैं, उनका बंटवारा बराबरी से होना चाहिए. जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से होना चाहिए."
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प्रोफेसर सतीश आगे जोड़ते हैं, "अगर गैर-बराबरी को कम करना है, तो जिस समुदाय को ऐतिहासिक तौर पर कम मिला है, उसे उसके अनुपात से ज्यादा भी देना होगा. अभी कथित अगड़ी जातियों के पास उनके अनुपात से कई गुना ज्यादा संसाधन हैं, जबकि उनकी जनसंख्या 15-17 फीसदी से ज्यादा नहीं है."
न्यूज वेबसाइट 'दी प्रिंट' की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2022-23 में 'केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उद्यमों' में ओबीसी वर्ग की हिस्सेदारी लगभग 23 फीसदी थी. एससी वर्ग की हिस्सेदारी 17 फीसदी और एसटी वर्ग की 10 फीसदी थी. वहीं, सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व लगभग 49 फीसदी था. यानी, बाकी तीनों वर्गों की कुल हिस्सेदारी से सिर्फ एक फीसदी कम.
आरक्षण में बदलाव की मांग से टकराव बढ़ेगा?
साल 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह की सरकार ने 'मंडल आयोग' की सिफारिश पर ओबीसी वर्ग को सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया था. उसके बाद देशभर में खूब उग्र विरोध प्रदर्शन हुए थे. विभिन्न वर्गों के बीच तनाव भी बढ़ गया था. कई आलोचक आशंका जताते हैं कि अगर जातिगत जनगणना के बाद आरक्षण बढ़ाने की मांग उठी, तो जाति-वर्गों के आपसी रिश्ते फिर बिगड़ सकते हैं.
इस आशंका पर प्रोफेसर सतीश कहते हैं, "जातिगत जनगणना के बाद हालात पहले बिगड़ेंगे. समाज में भीषण संघर्ष होगा, लेकिन अगर हम घोर विषमता के वर्तमान से बराबरी के भविष्य की ओर जाना चाहते हैं, तो हमें इससे गुजरना होगा. इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. यह समाज के भविष्य के लिए अच्छा है क्योंकि फिर हमारा भविष्य स्वस्थ होगा."
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प्रोफेसर अश्विनी महाजन, जातिगत जनगणना के उद्देश्य पर ही सवाल उठाते हैं. डीडब्ल्यू हिंदी से बातचीत में उन्होंने कहा, "जातिगत जनगणना अंग्रेजों के जमाने में हुआ करती थी और उनका उद्देश्य समाज में विभाजन पैदा करना था. देश आजाद होने के बाद जब 1951 में जनगणना हुई, तो यह कहा गया कि जाति आधारित जनगणना देश को बांटने का काम करेगी इसलिए अब इसे जारी ना रखा जाए."
इस आशंका के जवाब में प्रोफेसर सतीश कहते हैं, "मेरी राय में वह एक तरह की आशावादी नादानी थी, लेकिन अब उसकी कोई गुंजाइश नहीं रह गई है. तब हमने जाति पर ध्यान नहीं दिया, तो यह विषमता बढ़ती ही गई. अब यह असहनीय हो गई है. अगर इसका समाधान करना है, तो शुरुआत जाति जनगणना से ही करनी होगी."
वह आगे कहते हैं, "यह तर्क गलत है कि जातिगत जनगणना से जातीय अस्मिता को बढ़ावा मिलेगा. हमने अब तक जाति आधारित गणना नहीं की है, लेकिन फिर भी पिछले 30-40 सालों में जातीय लामबंदी और जातीय राजनीति खूब हुई है. ऐसा नहीं है कि हमारा समाज अभी एकजुट है और जाति जनगणना के बाद उसमें दरारें आ जाएंगी."
हालांकि, प्रोफेसर सतीश यह भी मानते हैं कि कि गैर-बराबरी दूर करना एक लंबा सफर है और जातिगत जनगणना उसका पहला कदम है. वह आगाह करते हैं, "जाति आधारित जनगणना कोई जादू की छड़ी नहीं है कि इससे सब ठीक हो जाएगा. इससे मिली जानकारी पर अमल भी करना होगा, तभी कुछ फायदा होगा."