बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो न केवल छोटी उम्र में ही बड़े मंसूबे ठान लेते हैं, बल्कि उन्हें पूरा करने के लिये पूरा जीवन लगा देते हैं. और अगर मंसूबों को पूरा करने के बीच परिस्थितियां कठिन हों और रास्ता चुनौतियों से भरा हो, तो सफलता का स्वाद बेहद मीठा होता है. ऐसी ही सफलता को प्राप्त किया डॉ. सेरिंग लाहडोल ने, जिनको लद्दाख की पहली महिला डॉक्टर होने का गौरव प्राप्त है. उन्होंने खुद को स्त्री रोग विशेषज्ञ के तौर पर तैयार किया ताकि लद्दाख की ऊंची-ऊंची बर्फ की पहाड़ियों पर रहने वाली महिलाओं का इलाज कर सकें.
1970 के दौर में कई जटिल परिस्थितियों के बीच भी उन्होंने हार नहीं मानी, उनके अदम्य इरादों से लद्दाख में महिलाओं के स्वास्थ्य की तस्वीर ही बदल गई. डॉ. लाहडोल ने स्वास्थ्य सेवाओं के साथ-साथ स्त्री रोगों और पोषण के लिये जागरूक करने का बीड़ा भी उठाया. 75 साल की उम्र में भी मरीजों की सेवा में लगी डॉ लाहडोल सर्वाकल कैंसर के इलाज की सुविधा आम जन को पहुंचने के लिये काम कर रही हैं. उनके कार्यों को देखते हुये 2005 में उन्हें विश्व भर नोबेल शांति पुरस्कार के लिये चुनी गई एक हजार महिलाओं की सूची में भी जगह मिली. केंद्र सरकार की ओर स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके सराहनिय योगदान के लिये पद्म श्री औऱ पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया. यह भी पढ़ें-Chemical layer Mask: लोगों के बीच आ गया केमिकल लेयर वाला मास्क, कोरोना महामारी से बचने में मिलेगी मदद
डॉ. सेरिंग लाहडोल ने प्रसार भारती से खास मुलाकात की. प्रस्तुत हैं मुलाकात के प्रमुख अंश:
उस समय कैसे प्रैक्टिस की और चुनौतियां क्या-क्या रहीं?
एक छोटा सा जिला अस्पताल होता था, जहां सुविधा तब न के बराबर थी. मेरे जाने के बाद वहां एक दम शुरूआत करनी पड़ी स्ट्रेचर से लेकर ऑपरेशन थियेटर तक सब स्थापित करना पड़ा. ऐसा नहीं था कि वहां सब कुछ एक साथ आ गया हो, बल्कि धीरे-धीरे मंगाना पड़ा. तब लोगों में भी जागरूकता नहीं थी, कोई अस्पताल नहीं आता था. किसी भी तरह की बीमारी हो, लोग अस्पताल नहीं जाते थे. खासकर महिलायें, जो गाइनोकोलॉजी से जुड़ी समस्यों को भी शर्म समझती थीं और किसी से नहीं बताती थीं. मुझे लोगों तक पहुंचने में इस लिये आसानी हुई क्योंकि मैं उन्हीं के बीच पली बड़ी थी. सभी जानते थे कि यहीं की हैं इसलिये धीरे-धीरे करके अपनी समस्याएं बताने लगीं.
कई बार पढ़ी लिखी महिलायें भी अपनी समस्या नहीं बता पाती थीं, ऐसे में लद्दाख में काम करना कितना कठिन रहा?
शुरू में कोई सामने नहीं आता था, लेकिन जब लोगों ने आना शुरू किया तो वो महिलायें दूसरों को जागरूक करने लगीं.क्योंकि अक्सर किसी एक को इलाज से फायदा हुआ तो गांव में आपस में महिलायें बात करती थीं. इस तरह से लोगों में विश्वास जगा. खास बात यह है कि सिर्फ एक गांव में नहीं बल्कि कई गांवों और महिलाओं में विश्वास पैदा हुआ, लेकिन यह सब करने में काफी समय लगा.
शून्य से नीचे तापमान वाली जगह में महिला डॉक्टर की भूमिका में किन दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा?
शुरू में तो कुछ महिलाओं के इलाज के लिये कोई सुविधा नहीं थी, लेकिन धीरे-धीरे व्यवस्था बनी. फिर भी तापमान कम होने पर उपकरण स्टरलाइज्ड नहीं हो पाते थे। ऑपरेशन के समय तब बिजली की भी सुविधा नहीं होती थी. -35 तक तापमान रहता, कुछ मंगा भी नहीं सकते थे, क्योंकि लद्दाख 6 महीनों के लिये बंद हो जाता था. हफ्ते में एक बार एयर लिफ्ट के लिये आते थे। ज्यादातर समस्याओं का समाधान डॉक्टर और स्टॉफ मिल कर खुद ही निकालने की कोशिश करते. कई बार किसी अबॉर्शन या डीलिवरी के क्रिटिकल केस आ जाते थे. मुझे अगर जरा भी कोई परेशानी होती सभी सीनियर डॉक्टर खड़े हो जाते थे. बच्चों के जन्म के बाद करीब 30 डिग्री तापमान होना जरूरी है, लेकिन कोई सुविधा तब नहीं थी, उन्हें गरमी देने की, तब उन्हें बच्चे को टेबल पर सुला कर नीचे से स्टोव जला कर गर्माहट देते थे. लेकिन हां तब महिलाओं को इंफेक्शन का खतरा उतना नहीं होता था, सभी महिलायें इम्यून होती थीं.
अगर कभी इमरजेंसी में मरीज तक पहुंचना हो तो कैसे पहुंचती थीं?
कई बार ऐसी परिस्थिति आती थीं, जब मरीज तक पहुंचना होता था और रास्ते बंद रहते थे. उन दिनों कई बार घोड़े पर चढ़कर जाती थी। लेकिन वहां जाने पर पता चलता कि मरीज को अस्पताल ले जाना जरूरी है, तो उसी घोड़े पर बर्फिली हवाओं को बीच अस्पताल ले आते थे. एक बार एक महिला की हालत बहुत खराब हो गई, तब बोरे में भूसा भर कर उसके बीच में उसे लेकर आना पड़ा. हांलाकि वो सुरक्षित रही. कई बार घुटने के बल या रात में पहाड़ों, झरनों के बीच चलना काफी मुश्किल होती थी, लेकिन मैं उसी इलाके की थी, इसलिये कर लेती थी। अब तो सड़के बन गई हैं, सभी सुविधाएं भी हैं।.
उन दिनों परिवार मे किसने सबसे ज्यादा सपोर्ट किया?
जब गांव में कभी-कभी कोई डॉक्टर आते तो देखकर लगा कि मैं भी ऐसे बनकर सबका इलाज करूंगी. मेरे पूरे परिवार में खास कर दादा-दादी को विश्वास था और कहते कि ये डॉक्टर बनेगी। एक बार दादा जी के भाई ने कहा कि ऐसा करेगी, डिलीवरी करायेगी तो देवता नाराज होंगे. तब दादा जी ने कहा ये तो शुभ और अच्छा काम है औऱ इससे देवता कभी नाराज नहीं होते. मेरा सपना था डॉक्टर बनने के बाद लद्दाख में ही सेवाएं देनी हैं.
लोगों के लिये क्या संदेश हैं?
जो करें पूरी लगन से करें, लेकिन उसमें आगे बढ़ने की कोशिश करते रहें। केवल एक जगह रुक न जायें, बल्कि खुद आगे बढ़ कर आयें. अनुशासन बहुत जरूरी है। डॉक्टरों से कहना चाहूंगी कि जब भी कॉल आये तुरंत जायें. वहीं महिलाओं को यही कहना चाहूंगी कि स्वास्थ्य से संबंधित परेशानी होने पर डॉक्टर के पास जायें, कुछ भी छुपाये नहीं, क्योंकि आपका बेहतर इलाज करने के लिये डॉक्टर पूरी कोशिश करते हैं.