दुनिया के पहले भारतीय वैज्ञानिक सर जगदीशचंद्र बोस (Jagdish Chandra Bose) ने अपने शोधों से प्रमाणित कर दिया कि पशु और पौधे दोनों की जीवन शैली में काफी हद तक समानताएं हैं. आम इंसान की तरह पौधे भी सर्दी, गर्मी, प्रकाश, शोर जैसी चीजों से प्रभावित होते हैं, इन पर भी जहर का वही असर करता है, जो इंसानों को करता है. यही नहीं, बोस ने क्रेस्कोग्राफ नामक एक बेहद उपयोगी उपकरण का निर्माण किया, जो पौधों के बाहरी सेल्स के प्रत्येक प्रतिक्रियाओं का रिकॉर्ड और निरीक्षण कर सकता है. आज देश अपने महान वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु की 83वीं पुण्य तिथि (23 नवंबर, 1937) मना रहा है. आइये जानें इस महान वैज्ञानिक सर जगदीशचंद्र बसु वनस्पतियों पर क्या-क्या शोध किये. जिन्होंने विरोध स्वरूप जब उन्होंने वेतन लेने से मना कर दिया.
सर जगदीशचंद्र बोस का जन्म 30 नवंबर, 1858 को मेमनसिंह (अब बांग्लादेश में) में हुआ था. उनकी परवरिश विशुद्ध भारतीय परंपराओं और संस्कृति वाले परिवार में हुई. प्रारंभिक शिक्षा एक स्थानीय स्कूल में हुई, क्योंकि पिता का मानना था कि जगदीश को अंग्रेजी भाषा में अध्ययन करने से पहले अपनी मातृभाषा बंगाली सीखनी चाहिए. इसके बाद कोलकाता के सेंट जेवियर्स स्कूल की शिक्षा पूरी करने के बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से फिजिक्स के साथ स्नातक करने के कैंब्रिज विश्वविद्यालय से प्राकृतिक विज्ञान से बीएससी की डिग्री पूरी कर भारत लौटे. उन्हें कलकत्ता (अब कोलकाता) के प्रेसीडेंसी कॉलेज में भौतिक विज्ञान के बतौर प्रोफेसर नियुक्ति मिल गयी. यह भी पढ़े: Rabindranath Tagore Death Anniversary 2020: कवि रविंद्रनाथ टैगोर के पुण्यतिथि पर बीजेपी, कांग्रेस समेत इन दिग्गज नेताओं ने ट्वीट कर दी श्रद्धांजलि
लेकिन उन्हें अपने सहयोगियों की तुलना में आधी सेलरी मिलती थी. युवा जगदीशचंद्र बोस ने इसका तीव्र विरोध किया और सेलरी स्वीकारने से साफ मना कर दिया, वे तब तक बिना सेलरी कार्य करते रहे, जब तक उन्हें पूरी सेलरी नहीं मिल गयी. लेकिन ज्यों ही पूरी सेलरी मिलनी शुरु हुई, बोस ने अपने पद से इस्तीफा देकर साल 1917 में कलकत्ता में ही 'बोस संस्थान' की स्थापना की, जिसमें ज्यादातर शोध पौधों पर किया गया. इस संस्थान में वह अंतिम सांस लेने तक (20 साल) निर्देशक पद पर कार्य करते रहे.
बोस द्वारा किये गये शोध:
10 मई 1901.... लंदन स्थित रॉयल सोसायटी के सेंट्रल हाल में दुनिया भर के वैज्ञानिकों का जमघट लगा हुआ था. सभी को यह जानने की व्यग्रता थी कि जगदीशचंद्र बसु यह बात कैसे प्रमाणित करेंगे कि पेड़-पौधों में भी मनुष्यों जैसी भावनाएं होती हैं. श्री बोस ने एक ऐसा पौधा लिया, उसकी जड़ों को एक ऐसी प्याली में रखा, जिसमें पहले से ब्रोमाइड सोल्यूशन भरा हुआ था. वस्तुतः यह एक प्रकार का चूहा मारने वाला जहर था. इसे स्क्रीन के माध्यम से लोगों को दिखाया गया. लोग उस समय हैरत में रह गये जब मिनट भर में पौधे में एक कंपन होता है और फिर पौधा एकदम स्थिर हो जाता है. यानी जहरीले ब्रोमाइड के संपर्क में आने के एक मिनट के भीतर पौधे की मृत्यु हो जाती है. लोगों के लिए यह किसी अजूबे से कम नहीं था. तालियों की गड़गड़ाहट के साथ जगदीशचंद्र बोस के इस सफल शोध का स्वागत किया गया. हांलाकि कुछ फिजियोलॉजिस्टों ने बोस के इस प्रयोग पर आलोचना की, लेकिन बोस अपने परिणामों से पूरी तरह संतुष्ट थे.
इसके बाद बोस ने एक और प्रयोग के तहत क्रेस्कोग्राफ का निर्माण किया, जो पौधों के ऊतकों की गति को उनके वास्तविक आकार के लगभग 10 हजार गुना तक बढ़ाने में सक्षम था. ऐसा करने के बाद दूसरे जीवों और पौधों के बीच कई समानताएं देखने को मिलीं. इसके माध्यम से पौधों की प्रत्येक प्रतिक्रिया को उर्वरकों, प्रकाश की किरणों और वायरलेस तरंगों पर भी शोध किया. साल 1900 में विश्व कांग्रेस ने इसकी प्रशंसा की. बाद में कई फिजियोलॉजिस्टों ने भी बोस के शोधों का पुरजोर समर्थन किया. इसके बाद बोस ने रेडियो तरंगों के व्यवहार पर भी कई शोध किये. उन्होंने रेडियो तरंगों के व्यवहार पर भी कई शोध किये.
इसमें 'द कोहेगर' नामक संयंत्र की सर्वत्र प्रशंसा मिली.कई सारे शोधों पर वैज्ञानिकों और आम लोगों का समर्थन मिलने के बाद जगदीशचंद्र बोस ने दो पुस्तकें 'लिविंग एंड नॉन लिविंग' (1902) और 'द नर्वस मैकेनिज्म ऑफ प्लांट्स' (1926) भी लिखीं, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी लोकप्रिय रही. इस पुस्तक में उन्होंने अपने तमाम शोधों के अनुभवों को लिखा है. साल 1917 में उन्हें को 'नाइट' की उपाधि से सम्मानित किया गया और 1920 में उन्हें रॉयल सोसायटी का स्थाई सदस्य चुना गया. 23 नवंबर 1937 गिरिडीह में उनका निधन हो गया.