मुंबई: सभी भाषाओँ की जननी संस्कृत की पहचान भारत से मिटती जा रही है. करीब सवा सौ करोड़ आबादी वाले भारत देश में देवभाषा संस्कृत को बोलने वालों की संख्या महज अब गिनती भर ही बची है और आने वाले समय में शायद इस भाषा का ज्ञान रखनेवाला कोई ना बचे. दरअसल ऐसा हम नहीं बल्कि हाल ही में आई एक रिपोर्ट से ऐसा ही निष्कर्ष सामने निकलकर आ रहा है. इसके मुताबिक 22 सूचीबद्ध भाषाओं में संस्कृत सबसे कम बोली जाने वाली भाषा बन गई है. और केवल 24,821 लोगों ने संस्कृत को अपनी मातृभाषा बताया है.
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी खबर के अनुसार हिंदी भाषा को नंबर एक का दर्जा प्राप्त हुआ है. जनगणना के मुताबिक, 2001 में 41.03% लोगों ने हिंदी को मातृभाषा बताया था, जबकि 2011 में इसकी संख्या बढ़कर 43.63% हो गई है. बांग्ला भाषा दूसरे नंबर पर बरकरार है वहीं, मराठी ने तेलुगू को तीसरे स्थान से अपदस्थ कर दिया है.
वहीँ विश्व की समस्त भाषाएँ संस्कृत के गर्भ से उद्भूत हुई है लेकिन आज इसे बोलने वाले लोगों की संख्या बोडो, मणिपुरी, कोंकणी और डोगरी भाषा से भी कम रह गई है. ज्ञात हो कि वेदों की रचना भी इसी भाषा में होने के कारण इसे वैदिक भाषा भी कहा जाता हैं. संस्कृत भाषा का प्रथम काव्य-ग्रन्थ ऋग्वेद को माना जाता है.
2011 जनगणना के आंकड़े के अनुसार गैर-सूचीबद्ध भाषाओं में लगभग 2.6 लाख लोगों ने अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा बताया. इनमें से सबसे अधिक 1.06 लाख लोग महाराष्ट्र में हैं. तमिलनाडु और कर्नाटक इस मामले में क्रमश: दूसरे और तीसरे नंबर पर हैं.