Year-Ender 2020: साहित्यकार जो 2020 में हमसे दूर हो गए #YearEnder2020 (738 words) साल 2020 आपदा का साल था. असंख्य लोग असमय काल के गाल में समा गए. छोटे से लेकर बड़े और अमीर से लेकर गरीब सब इसकी चपेट में आये. साहित्य की दुनिया भी इससे अछूती नहीं रही. इस महामारी में साहित्य जगत के कई दिये बुझ गए.
जिनमें मुख्य रूप से हम राहत इंदौरी, मंगलेश डबराल और शम्सुर्रहमान फारूकी साहब को रख सकते हैं. हम इस आलेख में इन्हीं तीन व्यक्तियों को याद करेंगे.
हिंदी के लाडले मंगलेश डबराल (Manglesh Dabral)
1948 के मई महीने में गढ़वाल में जन्में मंगलेश डबराल कभी पहाड़ों के पाश से बाहर न निकल पाए. पहाड़ उनके लिए सिर्फ ऊंचाई का ही प्रतीक नहीं, अपितु एक भरे पूरे जीवन की संकल्पना थे.
यही कारण है कि जिस पहले कविता संग्रह से उन्होंने नाम कमाया उसका नाम भी 'पहाड़ पर लालटेन' (1981) था. उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा, एक के बाद एक कविता संग्रह लिख डाले. सभी सफल रहे. कवि के लिए सफलता के मायने दुनिया से अलग होते हैं. उसका सबसे बड़ा पुरस्कार पाठक होता है. और मंगलेश जी का पाठक समूह उनकी सफलता के दर्जे को निःसंदेह बयां करता है.
'घर का रास्ता' (1988) 'हम जो देखते हैं' (1995) 'आवाज भी एक जगह है'और 'नए युग के शत्रु' आदि काव्य संग्रह खूब चर्चित हुए. 'हम जो देखते हैं' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी से नवाजा गया. जिसे उन्होंने देश में बढ़ती राजनीतिक हत्याओं के विरोध में वापस कर दिया. यही कवि की जिंदगी होती है पुरूस्कार, पुरुषार्थ से अधिक नहीं होते उनके लिए.
मंगलेश जी कहते थे कविता का धर्म होता है एक आम इंसान की तरफ से सत्ता के सामने पैरवी करना. वो आजीवन यह करते रहे. कलबुर्गी और दाभोलकर की राजनीतिक हत्या का विरोध उन्होंने प्रखर रूप से किया.
'मैंने तुम्हारी कल्पना की ताकि दुख से उभरने के लिए प्रार्थनाएं न करनी पड़े' इस वाक्यांश को एक आशिक अपनी प्रेमिका को समर्पित कर सकता है और दूसरा कोई देशप्रेमी अपने देश के आदर्शों को. जिनकी कल्पना से वह प्रेरित होकर , आगे बढ़ने का निश्चय करता है. यही है एक कवि की क्षमता ,उसके शब्द हर कोई अपने जीवन से मेल कर सकता है.
न सिर्फ एक कवि बल्कि अनुवादक के रूप में भी उन्होंने विश्व साहित्य को हिंदी भाषी पाठकों को उपलब्ध कराने के लिए अनथक परिश्रम किया. बर्तोल्त ब्रेख़्त ,पाब्लो नेरुदा एरनेस्तो कार्देनाल आदि महान कवियों के लेखन को आम भारतीय तक पहुँचाया.
उर्दू का अंतिम समीक्षक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी (Shamsur Rahman Faruqi)
"बनाएंगे नई दुनिया हम अपनी / तिरी दुनिया में अब रहना नहीं है". उर्दू की दुनिया का फनकार, भारत की तहजीब और अदब के प्रतीक फ़ारूक़ी साहब को निर्दयी कोरोना ने हमसे दूर कर दिया.
फ़ारूक़ी जी सिर्फ एक लेखक और कवि ही नही थे बल्कि उर्दू के बेहतरीन समीक्षक भी थे, जिन्होंने उर्दू साहित्य को नए मायने दिलवाए. मीर तकी मीर पर 4 खंडों में किताब लिखने पर उन्हें 'सरस्वती' सम्मान मिला. 1986 में उनकी झोली में साहित्य अकादमी भी आ गिरा. परंतु 2006 में उपन्यास "कई चाँद थे सरे-ए-आसमां" ने उर्दू के फलक को बदल कर रख दिया. इसने लेखन के नए पैमाने स्थापित किए. जिसने न सिर्फ फ़ारूक़ी साहब को शोहरत दिलवाई अपितु उन्हें किवदंती बना दिया.
1966 में उन्होनें 'शब-खून' नाम की पत्रिका निकलना. शुरू किया और 4 दशकों से ज्यादा समय तक उसके संपादक रहे.सदैव हिंदुस्तानी संस्कृति की मशाल लेकर देश की पहचान को अक्षुण्ण रखा. अब वह नहीं हैं ,सिर्फ उनके लफ्ज़ बचें जिनके सहारे हमें आगे बढ़ना होगा.
जन शायर राहत इंदौरी (Rahat Indori)
तीसरा दीपक जो कोरोना ने बुझा दिया वो थे शायर राहत इंदौरी. उन्होंने उर्दू को लोगों की जुबान पर चढ़ा दिया. लोग शायरी सुनने ही नहीं बल्कि लिखने के लिए भी प्रेरित हुए.
1 जनवरी 1950 को इंदौर में जन्मे राहत ताउम्र इंदौरी ही रहे.. प्रोफेसर से शुरू हुआ उनका जीवन पेंटर ,गीतकार और कवि के रूप में बदलते हुए शायर पर आकर थमा.
राहत इंदौरी ने उर्दू का परचम न सिर्फ देशों में बल्कि विदेशों में भी लहराया. उनके शेर न सिर्फ सत्ता के खिलाफ हथियार बने बल्कि कई बार उन्होंने मजहबी कट्टपंथियों को भी आईना दिखाया.
सारी उम्मीदें दूसरों से लगाएं रखने वालों के लिए उनका एक शेर है- न हमसफर न किसी हम नशीं से निकलेगा हमारे पाँव का काँट है हमीं से निकलेगा ऐसा कोई मौका-ए दस्तूर न होगा कि जिसपर उनके शेर न हों. यही एक कवि की जीत होती है. लोग अपने दर्द ,खुशी और मुश्किलों को उसके लेखन में अविव्यक्त पाते हैं.