पति की इच्छा अनुरूप पत्नी का नहीं ढलना, बच्चे की कस्टडी से वंचित करने का कारण नहीं- हाईकोर्ट ने रद्द किया फैमिली कोर्ट का आदेश
प्रतीकात्मक फोटो (Photo Credit : Pixabay)

बिलासपुर: छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय (Chhattisgarh High Court) ने बच्चे की अभिरक्षा को लेकर दायर की गई एक याचिका पर फैसला देते हुए कहा है कि यदि पत्नी, पति की इच्छा अनुरूप स्वयं को नहीं ढालती है, तब यह बच्चे की अभिरक्षा से उसे वंचित करने का निर्णायक कारक नहीं होगा. न्यायालय ने पारिवारिक अदालत (Family Court) के आदेश को रद्द करते हुए मां को बच्चे की अभिरक्षा सौपने का फैसला दिया है. छत्तीसगढ़ में साढ़े तीन वर्ष में ऐसा कोई काम नहीं जिसके आधार पर कांग्रेस वोट मांग सके: पटेल

अधिवक्ता सुनील साहू ने बताया कि जस्टिस गौतम भादुड़ी और जस्टिस संजय एस अग्रवाल की युगल पीठ ने महासमुंद जिले की पारिवारिक अदालत के आदेश को रद्द कर मां को बच्चे की अभिरक्षा सौंपने का फैसला सुनाया.

उच्च न्यायालय की युगल पीठ ने प्रस्तुत याचिका के निर्णय में टिप्पणी करते हुए कहा है कि जींस-टीशर्ट पहनने, पुरुष सहयोगियों के साथ नौकरी के सिलसिले में बाहर जाने से किसी भी महिला का चरित्र तय नहीं किया जा सकता है. न्यायालय ने कहा है कि इस तरह की सोच से महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता के लिए चल रही लड़ाई लम्बी और कठिन हो जाएगी. उसका कहना था कि ऐसी शुतरमुर्ग की तरह की मानसिकता रखने वाले समाज के कुछ लोगों के प्रमाण-पत्र से किसी महिला का चरित्र निर्धारित नहीं किया जा सकता.

न्यायालय ने यह भी कहा है कि प्रस्तुत मामले में यदि पत्नी, पति की इच्छा अनुरूप स्वयं को नहीं ढालती है, तो यह बच्चे की अभिरक्षा से उसे वंचित करने का निर्णायक कारक नहीं होगा.

सुनील साहू ने बताया कि महासमुंद निवासी एक दंपती का विवाह वर्ष 2007 में हुआ था. इसी वर्ष दिसंबर माह में उनका एक पुत्र पैदा हुआ. विवाह के पांच साल बाद, वर्ष 2013 में दोनों ने आपसी सहमति से तलाक ले लिया. दोनों में आपसी सहमति बनी कि पुत्र अपनी मां के पास रहेगा. इसके बाद बच्चे की मां महासमुंद में ही एक निजी संस्थान में ऑफिस असिस्टेंट की नौकरी करने लगी.

साहू ने बताया कि तलाक के बाद 2014 में बच्चे के पिता ने महासमुंद की पारिवारिक अदालत में आवेदन प्रस्तुत कर बेटे को उसे सौपने की मांग की. पारिवारिक अदालत में बच्चे के पिता ने बताया कि उसकी पत्नी अपने संस्थान के पुरुष सहयोगियों के साथ बाहर आना-जाना करती है, वह जींस-टी शर्ट पहनती है, उसका चरित्र भी अच्छा नहीं है, इसलिए उसके साथ रहने से बच्चे पर गलत असर पड़ेगा. अधिवक्ता साहू ने बताया कि गवाहों के बयान के आधार पर फैमिली कोर्ट ने 2016 में बच्चे की अभिरक्षा मां के स्थान पर पिता को सौप दी थी. बच्चे की मां ने फैमिली कोर्ट के फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी. याचिका में कहा गया कि दूसरों के बयान के आधार पर कोर्ट का यह निष्कर्ष निकालना गलत है कि पिता ही बच्चे की उचित देखभाल कर सकता है.

साहू ने बताया कि न्यायालय ने बच्चे को उसकी मां को सौंपने का फैसला देने के साथ यह माना है कि बच्चे को अपने माता-पिता का समान रूप से प्यार और स्नेह पाने का अधिकार है. उच्च न्यायालय ने बच्चे के पिता को उससे मिलने और संपर्क करने की सुविधा भी दी है.

(यह सिंडिकेटेड न्यूज़ फीड से अनएडिटेड और ऑटो-जेनरेटेड स्टोरी है, ऐसी संभावना है कि लेटेस्टली स्टाफ द्वारा इसमें कोई बदलाव या एडिट नहीं किया गया है)

ong> छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय (Chhattisgarh High Court) ने बच्चे की अभिरक्षा को लेकर दायर की गई एक याचिका पर फैसला देते हुए कहा है कि यदि पत्नी, पति की इच्छा अनुरूप स्वयं को नहीं ढालती है, तब यह बच्चे की अभिरक्षा से उसे वंचित करने का निर्णायक कारक नहीं होगा. न्यायालय ने पारिवारिक अदालत (Family Court) के आदेश को रद्द करते हुए मां को बच्चे की अभिरक्षा सौपने का फैसला दिया है. छत्तीसगढ़ में साढ़े तीन वर्ष में ऐसा कोई काम नहीं जिसके आधार पर कांग्रेस वोट मांग सके: पटेल

अधिवक्ता सुनील साहू ने बताया कि जस्टिस गौतम भादुड़ी और जस्टिस संजय एस अग्रवाल की युगल पीठ ने महासमुंद जिले की पारिवारिक अदालत के आदेश को रद्द कर मां को बच्चे की अभिरक्षा सौंपने का फैसला सुनाया.

उच्च न्यायालय की युगल पीठ ने प्रस्तुत याचिका के निर्णय में टिप्पणी करते हुए कहा है कि जींस-टीशर्ट पहनने, पुरुष सहयोगियों के साथ नौकरी के सिलसिले में बाहर जाने से किसी भी महिला का चरित्र तय नहीं किया जा सकता है. न्यायालय ने कहा है कि इस तरह की सोच से महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता के लिए चल रही लड़ाई लम्बी और कठिन हो जाएगी. उसका कहना था कि ऐसी शुतरमुर्ग की तरह की मानसिकता रखने वाले समाज के कुछ लोगों के प्रमाण-पत्र से किसी महिला का चरित्र निर्धारित नहीं किया जा सकता.

न्यायालय ने यह भी कहा है कि प्रस्तुत मामले में यदि पत्नी, पति की इच्छा अनुरूप स्वयं को नहीं ढालती है, तो यह बच्चे की अभिरक्षा से उसे वंचित करने का निर्णायक कारक नहीं होगा.

सुनील साहू ने बताया कि महासमुंद निवासी एक दंपती का विवाह वर्ष 2007 में हुआ था. इसी वर्ष दिसंबर माह में उनका एक पुत्र पैदा हुआ. विवाह के पांच साल बाद, वर्ष 2013 में दोनों ने आपसी सहमति से तलाक ले लिया. दोनों में आपसी सहमति बनी कि पुत्र अपनी मां के पास रहेगा. इसके बाद बच्चे की मां महासमुंद में ही एक निजी संस्थान में ऑफिस असिस्टेंट की नौकरी करने लगी.

साहू ने बताया कि तलाक के बाद 2014 में बच्चे के पिता ने महासमुंद की पारिवारिक अदालत में आवेदन प्रस्तुत कर बेटे को उसे सौपने की मांग की. पारिवारिक अदालत में बच्चे के पिता ने बताया कि उसकी पत्नी अपने संस्थान के पुरुष सहयोगियों के साथ बाहर आना-जाना करती है, वह जींस-टी शर्ट पहनती है, उसका चरित्र भी अच्छा नहीं है, इसलिए उसके साथ रहने से बच्चे पर गलत असर पड़ेगा. अधिवक्ता साहू ने बताया कि गवाहों के बयान के आधार पर फैमिली कोर्ट ने 2016 में बच्चे की अभिरक्षा मां के स्थान पर पिता को सौप दी थी. बच्चे की मां ने फैमिली कोर्ट के फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी. याचिका में कहा गया कि दूसरों के बयान के आधार पर कोर्ट का यह निष्कर्ष निकालना गलत है कि पिता ही बच्चे की उचित देखभाल कर सकता है.

साहू ने बताया कि न्यायालय ने बच्चे को उसकी मां को सौंपने का फैसला देने के साथ यह माना है कि बच्चे को अपने माता-पिता का समान रूप से प्यार और स्नेह पाने का अधिकार है. उच्च न्यायालय ने बच्चे के पिता को उससे मिलने और संपर्क करने की सुविधा भी दी है.

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