नयी दिल्ली, तीन जनवरी उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शुक्रवार को इस बात पर अफसोस जताया कि भारत में सनातन और हिंदू के जिक्र भर से ‘‘गुमराह’’ लोगों की ओर से चौंकाने वाली प्रतिक्रियाएं आती हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि जो लोग शब्दों की गहराई और उनके गहरे अर्थ को समझे बिना ऐसी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हैं, वे ‘‘खतरनाक परिवेश’’ से प्रेरित हैं।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में आयोजित अंतरराष्ट्रीय वेदांत कांग्रेस को संबोधित करते हुए धनखड़ ने कहा कि यह विडंबनापूर्ण और दुखद है कि इस देश में ‘‘सनातन और हिंदू का संदर्भ’’ चौंकाने वाली प्रतिक्रियाएं उत्पन्न कर रहा है।
उन्होंने कहा, ‘‘इन शब्दों के गहरे अर्थ को समझने के बजाय, लोग तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं।’’
धनखड़ ने इन्हें गुमराह लोग करार देते हुए कहा, ‘‘ऐसे व्यक्ति खतरनाक परिवेश से प्रेरित होते हैं जो न केवल समाज के लिए, बल्कि खुद के लिए भी खतरा हैं।’’
उपराष्ट्रपति ने कहा कि ऐसे समय में जब वैश्विक विधाएं वेदांत दर्शन को अपना रही हैं, ‘‘आध्यात्मिकता की इस भूमि पर कुछ ऐसे लोग भी हैं’’ जो वेदांत और सनातनी ग्रंथों को ‘‘प्रतिगामी’’ कहकर खारिज कर देते हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘यह खारिज करना अक्सर विकृत औपनिवेशिक मानसिकताओं और हमारे बौद्धिक धरोहर की अपर्याप्त समझ से उत्पन्न होता है। ये तत्व एक व्यवस्थित और घातक तरीके से काम करते हैं। वे अपने विध्वंसक विचारों को धर्मनिरपेक्षता के विकृत रूप में छुपाते हैं। यह बहुत खतरनाक है। धर्मनिरपेक्षता को ऐसे कुकृत्यों का बचाव करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसे तत्वों का पर्दाफाश करना हर भारतीय का कर्तव्य है।’’
धनखड़ ने कहा कि यह असहिष्णुता ‘‘हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करती है।’’ उन्होंने कहा कि यह समाज में सामंजस्य में विघ्न डालती है। यह केवल विनाश और विफलता की ओर ले जाती है।
संसद में व्यवधान का जिक्र करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि ‘‘अभिव्यक्ति’’ और ‘‘संवाद’’ आवश्यक हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘अभिव्यक्ति का अधिकार एक दिव्य उपहार है। इसे किसी भी तरीके से कम करना उचित नहीं है और यह हमें दूसरे पहलू की याद दिलाता है, जो संवाद है। यदि आपके पास अभिव्यक्ति का अधिकार है, लेकिन आप संवाद में शामिल नहीं होते, तो कुछ नहीं हो सकता। इसलिए दोनों एक साथ होना चाहिए। अभिव्यक्ति और संवाद सभ्यता के लिए आवश्यक हैं।’’
धनखड़ ने कहा कि संवाद, बहस, चर्चा और विचार-विमर्श को व्यवधान और संकट से बाहर लाने की आवश्यकता है, यहां तक कि लोकतंत्र के मंदिर (संसद) में भी।’’
उन्होंने कहा, ‘‘क्या त्रासदी है? लोकतंत्र के मंदिर की पवित्रता को भंग किया जा रहा।’’
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