नया एक्सोप्लैनेट: जीजे 367 बी से मिलिए, इस्पात का एक ग्रह जो पृथ्वी से छोटा और सघन है
प्रतीकात्मक तस्वीर (Photo Credits: Twitter)

कील (यूके), 3 दिसंबर : 4.6 अरब साल पहले हमारे सौर मंडल के बनने के बाद, धूल और बर्फ के छोटे-छोटे कण अंतरिक्ष में घूमते थे, जो सूर्य के निर्माण के अवशेष थे. समय के साथ, वे आपस में टकराते रहे और एक-दूसरे से चिपक गए. जैसे-जैसे वे आकार में बढ़ते गए, गुरुत्वाकर्षण ने उन्हें आपस में टकराने में मदद की. ऐसी ही एक चट्टान पृथ्वी के रूप में विकसित हुई जिस पर हम रहते हैं. अब हम मानते हैं कि रात में आकाश में दिखाई देने वाले अधिकांश तारे भी अपने स्वयं के ग्रहों द्वारा परिक्रमा करते हैं. खगोलविदों को पहले ही एक हजार से अधिक गैस-बहुल ग्रह मिल चुके हैं - बृहस्पति के आकार के समान बड़े, गैसीय पिंड. अब चट्टानी, पृथ्वी के आकार के ग्रहों की तलाश पर ध्यान है. हम उम्मीद करते हैं कि ये समान रूप से प्रचुर मात्रा में होंगे, लेकिन बहुत छोटे होने के कारण, इन्हें खोजना कठिन है. साइंस जर्नल में प्रकाशित एक नया पेपर एक छोटे ग्रह की नवीनतम खोज का दस्तावेजीकरण करता है, जिसे कैटलॉग नंबर जीजे 367बी दिया गया है. यह एक्सोप्लैनेट जर्मन एयरोस्पेस सेंटर में इंस्टीट्यूट ऑफ प्लैनेटरी रिसर्च के डॉ क्रिस्टीन लैम के नेतृत्व में एक टीम द्वारा खोजा गया था, जिसका मैं एक सदस्य था.

टीम के सदस्यों ने नासा के ट्रांजिटिंग एक्सोप्लैनेट सर्वे सैटेलाइट या टेस के डेटा में जीजे 367 बी के पहले लक्षण देखे. इस उपग्रह द्वारा निगरानी किए जा रहे लाखों सितारों में से एक ने इसकी चमक में एक छोटी लेकिन आवर्तक गिरावट दिखाई.

यह एक ग्रह का अपने तारे के सामने से गुजरने वाली प्रत्येक परिक्रमा (जिसे ‘‘पारगमन’’ कहा जाता है) का संकेत है, जो तारे के कुछ प्रकाश को अवरुद्ध करता है. इसकी चमक में गिरावट केवल 0.03% गहरी थी, इतनी कम कि इसका पता लगाना मुश्किल. इसका मतलब है कि इसे तुलनातमक रूप से पृथ्वी के आकार का होना चाहिए. लैम ग्रह के द्रव्यमान के बारे में भी जानना चाहता था. ऐसा करने के लिए, उनकी टीम ने उच्च सटीकता वाले रेडियल वेलोसिटी प्लैनेट सर्चर, या हार्प्स के साथ इस तारे को देखने के हर मुमकिन मौके का निरीक्षण करने का निर्णय किया. यह चिली में यूरोपीय दक्षिणी वेधशाला में 3.6 मीटर दूरबीन से जुड़ा एक उपकरण है. यह विशेष रूप से ग्रह के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव के कारण संबद्ध तारे के प्रकाश की तरंग दैर्ध्य में मामूली बदलाव का पता लगाकर ग्रहों को खोजने के लिए डिज़ाइन किया गया था. उस बदलाव का पता लगाने के लिए 100 से अधिक बार इसका अवलोकन किया गया, जिसका अर्थ है कि जीजे 367 बी, छोटा होने के अलावा, कम द्रव्यमान वाला भी होना चाहिए. यह भी पढ़ें : Omicron Variant: ओमिक्रॉन का पता लगाने के बाद केंद्र ने तीसरी लहर की संभावना पर स्पष्टीकरण दिया

आखिरकार, हार्प्स के साथ अवलोकन करते हुए शोधकर्ताओं ने संख्याओं से इसकी व्याख्या की. इसके अनुसार जीजे 367 बी की त्रिज्या पृथ्वी की त्रिज्या का 72% (7% की सटीकता के लिए) है, और इसका द्रव्यमान पृथ्वी के द्रव्यमान का 55% (14% की सटीकता के लिए) है. माप हमें बताते हैं कि यह ग्रह पृथ्वी से सघन है. जबकि पृथ्वी के पास एक चट्टानी आवरण से घिरा लोहे का एक कोर है, यह ग्रह इतना घना है कि यह लगभग पूरा लोहे का होना चाहिए, जो इसे बुध के समान बनाता है.

बुध हर 88 दिनों में सूर्य की परिक्रमा करता है. भीषण धूप के कारण इसकी सतह जलती रहती है. ‘‘दिन के समय’’ इसकी सतह 430 डिग्री तक गरम हो जाती है. जीजे 367बी और भी गरम है. आवर्तक पारगमन गिरावट हमें बताती है कि यह केवल आठ घंटों में अपने तारे की परिक्रमा करता है. इतना पास होने के कारण, दिन के समय यह एक भट्टी की तरह 1,400 डिग्री तक तप जाता है, इतना गरम कि चट्टान भी पिघल जाए. तो यह कैसे हुआ? हो सकता है कि जीजे 367बी कभी नेपच्यून जैसा विशाल ग्रह था, जिसपर गैसों का आवरण थाा. ऐसा अनुमान है कि समय के साथ, वह गैसीय लिफाफा हट गया और कोरी सतह उभर आई, जो हम आज देखते हैं. या शायद, जैसा कि इसका गठन हुआ, अन्य प्रोटो-ग्रहों (ग्रहों के गठन की प्रक्रिया में) के साथ टकराव ने केवल लोहे की कोर को छोड़कर, चट्टान का एक आवरण हटा दिया.

जीजे 367बी, इतना गर्म है कि इसपर जीवन का होना निश्चित रूप से असंभव है. लेकिन यह बहुत कम चट्टानी, पृथ्वी के आकार के ग्रहों में से एक है जिसे खगोलविदों ने अब तक खोजा है. इसकी खोज से पता चलता है कि हम अन्य सितारों के आसपास पृथ्वी के आकार के ग्रहों को ढूंढ सकते हैं और उनके गुणों को माप सकते हैं. अब काम यह करना है कि उन्हें उनके तारों से दूर की तरफ ‘‘रहने लायक क्षेत्र’’ में खोजना है, जहां सतह का तापमान पानी को तरल के रूप में मौजूद रहने देगा. यह कठिन है. एक ग्रह अपने तारे से जितना अधिक दूर होता है, उसके तारे को पार करते हुए देखे जाने की संभावना उतनी ही कम होती है, और पारगमन के बीच का समय जितना लंबा होता है, उनका पता लगाना कठिन हो जाता है. इसके अतिरिक्त, आगे की परिक्रमा करते हुए, मेजबान तारे पर गुरुत्वाकर्षण प्रभाव कम हो जाता है, जिससे सिग्नल का पता लगाना कठिन हो जाता है.