देश की खबरें | इंडोनेशियाई राजदूत ने वैश्किव परिदृश्य को 'मुद्दों की सुनामी' बताया

नयी दिल्ली, 24 अप्रैल इंडोनेशियाई राजदूत इना हग्निनिंगत्यास कृष्णमूर्ति ने बृहस्पतिवार को वैश्विक परिदृश्य को ‘मुद्दों की सुनामी” बताते हुए ‘ग्लोबल साउथ’ देशों से इस "अव्यवस्था के युग" में आपसी सम्मान और सहयोग का आग्रह किया।

कृष्णमूर्ति ने उत्तर-औपनिवेशिक एकजुटता को आकार देने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका की भी सराहना की तथा उस साझा दृष्टिकोण को पुनर्जीवित करने का आह्वान किया, जिसने साम्राज्यवाद के विरुद्ध एशियाई और अफ्रीकी देशों को एकजुट किया।

इंडोनेशिया के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान भारत के “अटूट समर्थन” और 1947 के एशियाई संबंध सम्मेलन के आयोजन में भारत के नेतृत्व का हवाला देते हुए कृष्णमूर्ति ने विकासशील देशों से बढ़ती वैश्विक अव्यवस्था के सामने एक बार फिर एकजुट होने का आग्रह किया।

उन्होंने कहा, “जब हमारी संप्रभुता खतरे में थी, तब भारत हमारे साथ खड़ा था - इस एकजुटता को याद रखना चाहिए और नवीनीकृत करना चाहिए।”

कृष्णमूर्ति ऐतिहासिक ‘बांडुंग’ सम्मेलन की 70वीं वर्षगांठ मनाने के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में बोल रही थी। अप्रैल 1955 में इंडोनेशिया के बांडुंग में आयोजित यह सम्मेलन 29 एशियाई और अफ्रीकी देशों का एक ऐतिहासिक सम्मेलन था - जिनमें से कई देशों को कुछ ही समय पहले आजादी मिली थी। वे आर्थिक और सांस्कृतिक सहयोग को बढ़ावा देने और सभी रूपों में उपनिवेशवाद और नवउपनिवेशवाद का विरोध करने के लिए एक साथ आए थे।

उन्होंने वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को “मुद्दों की सुनामी” बताया तथा कमजोर गठबंधनों, साइबर युद्ध और गलत सूचनाओं की बाढ़ की ओर इशारा किया, जिससे संस्थाओं में विश्वास खत्म हो रहा है।

कृष्णमूर्ति ने चेतावनी दी कि राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद जैसी प्रतिक्रियाएं अनिश्चितता को हल करने के बजाय "अक्सर इसे और गहरा कर देती हैं", आर्थिक विभाजन को बढ़ाती हैं और नए संघर्षों को जन्म देती हैं।

उन्होंने ‘बांडुंग भावना’ के पुनरुद्धार के महत्व को रेखांकित किया तथा इस "अव्यवस्था के युग" से निपटने के लिए ‘ग्लोबल साउथ’ देशों के बीच आपसी सम्मान और सहयोग पर बल दिया।

पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने एकजुटता के आह्वान को दोहराया तथा 1955 के सम्मेलन को पश्चिमी प्रभुत्व की शक्तिशाली अस्वीकृति बताया।

उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के 1947 के एशियाई संबंध सम्मेलन को याद किया, जिसने उत्तर-औपनिवेशिक राष्ट्रों की स्वायत्तता पर जोर देकर ‘बांडुंग’ की नींव रखी थी।

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