नयी दिल्ली, चार जनवरी दिल्ली उच्च न्यायालय ने गर्भस्थ शिशु की लैंगिक पहचान का खुलासा करने के आरोप में एक चिकित्सक के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी रद्द कर दी और कहा कि यह साबित करने के लिए कुछ नहीं है कि चिकित्सक ने कानून का उल्लंघन करते हुए प्रसव पूर्व नैदानिक तकनीकों का इस्तेमाल किया।
उच्च न्यायालय ने कहा कि यह स्पष्ट है कि महिला चिकित्सक के खिलाफ आरोप केवल इस दावे तक सीमित हैं कि उसने एक ‘फर्जी रोगी’ का अल्ट्रासाउंड किया था।
न्यायमूर्ति चंद्रधारी सिंह ने पिछले महीने पारित आदेश में कहा, “यह साबित करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं किया गया कि याचिकाकर्ता ने पीसी और पीएनडीटी अधिनियम की धारा 4 का उल्लंघन करके प्रसव पूर्व निदान तकनीकों का इस्तेमाल किया या फिर भ्रूण के लिंग का निर्धारण करके उसका खुलासा कर दिया, जोकि पीसी और पीएनडीटी अधिनियम की धारा 5 और 6 का उल्लंघन है।”
गर्भस्थ शिशु के लिंग का पता लगाने के लिए प्रसव पूर्व निदान तकनीक का उपयोग गर्भधारण पूर्व एवं प्रसव पूर्व निदान तकनीक (पीसी एवं पीएनडीटी) अधिनियम के तहत प्रतिबंधित है।
अदालत ने कहा कि उसे लगता है कि प्रथम दृष्टया चिकित्सक के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता।
अगस्त 2020 में हरि नगर में स्थित एक अल्ट्रासाउंड सेंटर पर छापेमारी के बाद प्राथमिकी दर्ज की गई थी। प्राथमिकी में आरोप लगाया गया था कि याचिकाकर्ता चिकित्सक ने एक ‘फर्जी मरीज’ का अल्ट्रासाउंड किया था और प्रयोगशाला में काम करने वाले व्यक्ति ने भ्रूण के लिंग का कथित तौर पर खुलासा कर दिया था।
पुलिस ने पीसी एवं पीएनडीटी अधिनियम के प्रावधानों के तहत प्राथमिकी दर्ज की और चिकित्सक को गिरफ्तार कर लिया गया, हालांकि बाद में उसे जमानत दे दी गई।
चिकित्सक ने प्राथमिकी रद्द करने का अनुरोध करते हुए उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी।
डॉक्टर ने दलील दी थी कि तीन साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद पुलिस ने आरोपपत्र दाखिल नहीं किया है, जिससे पता चलता है कि उसके खिलाफ कोई मामला नहीं बनता।
अभियोजन पक्ष ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि अल्ट्रासाउंड याचिकाकर्ता ने किया था और भ्रूण के लिंग का कथित खुलासा सह-आरोपी ने किया।
(यह सिंडिकेटेड न्यूज़ फीड से अनएडिटेड और ऑटो-जेनरेटेड स्टोरी है, ऐसी संभावना है कि लेटेस्टली स्टाफ द्वारा इसमें कोई बदलाव या एडिट नहीं किया गया है)