नयी दिल्ली, 25 नवंबर उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण निर्णय में ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम क्षेत्र में सांसदों, विधायकों, नौकरशाहों, न्यायाधीशों और पत्रकारों को तरजीही भूमि आवंटन की सुविधा देने संबंधी सरकारी आदेश रद्द कर दिया।
न्यायालय ने कहा कि राज्य सरकार की इस तरह की उदारता ‘‘मनमाना’’ और ‘‘अतार्किक’’ है।
प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की पीठ ने इस नीति को ‘‘अनुचित, मनमाना, भेदभावपूर्ण’’ और संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का हनन बताया।
निर्णय में कहा गया है, ‘‘चुनिंदा विशेषाधिकार प्राप्त समूहों को रियायती दरों पर भूमि का आवंटन एक 'मनमाने' और ‘तर्कहीन’ दृष्टिकोण को दर्शाता है।’’
न्यायालय के निर्णय में कहा गया है कि राज्य सरकार की यह नीति सत्ता का दुरुपयोग है, जिसका उद्देश्य केवल समाज के समृद्ध वर्गों को लाभ पहुंचाना है तथा आम नागरिक और सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित लोगों के समान अधिकार को अस्वीकार करना है।
निर्णय में कहा गया है, ‘‘यह कहना गलत नहीं होगा कि स्पष्ट मनमानी का सिद्धांत, जो शायरा बानो बनाम भारत संघ मामले में प्रतिपादित किया गया था, यहां लागू होता है।’’
पीठ के लिए 64 पृष्ठों का निर्णय लिखते हुए प्रधान न्यायाधीश ने जनहित के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि नीति ने असमानता को बढ़ावा दिया है और संविधान में निहित वास्तविक समानता के सिद्धांतों को कमजोर किया है।
इसमें कहा गया है, ‘‘जब सरकार कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को रियायती दरों पर भूमि आवंटित करती है, तो इससे असमानता की व्यवस्था पैदा होती है, जिससे उन्हें भौतिक लाभ मिलता है, जिसे प्राप्त करना आम नागरिक के लिए टेढ़ी खीर है।’’
न्यायालय ने कहा, ‘‘यह तरजीही व्यवहार संदेश देता है कि कुछ व्यक्ति अपने सार्वजनिक पद या सार्वजनिक कल्याण की आवश्यकताओं के कारण नहीं, बल्कि केवल अपनी स्थिति के कारण अधिक पाने के हकदार हैं।’’
नीति का हवाला देते हुए, पीठ ने कहा कि सरकार के तीनों अंगों के उच्च अधिकारियों - विधायकों, नौकरशाहों और उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों - को इस तरह का तरजीही व्यवहार दिया गया है।
निर्णय में कहा गया है, ‘‘पत्रकारों, जिन्हें लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, को भी इसमें शामिल किया गया है। लोकतंत्र के इन चार स्तंभों से सरकार की शक्ति के मनमाने प्रयोग पर नियंत्रण और संतुलन के रूप में कार्य करने की अपेक्षा की जाती है।’’
इस निर्णय ने तत्कालीन आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा जारी 2005 के सरकारी आदेशों को रद्द कर दिया, साथ ही 2008 के उन आदेशों को भी रद्द कर दिया, जिनमें इन समूहों को रियायती दरों पर भूमि आवंटित की गई थी।
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