केविन फोस्टर, एसोसिएट प्रोफेसर, मीडिया स्टडीज, मोनाश यूनिवर्सिटी
मेलबर्न, 22 अगस्त (द कन्वरसेशन) ऑस्ट्रेलिया ने 20 साल पहले 11 सितंबर को न्यूयॉर्क स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमलों के मद्देनजर अमेरिका का साथ देते हुए अफगानिस्तान में एक मिशन के तहत अपनी सेना को भेजा। उस मिशन का उद्देश्य ओसामा बिन लादेन और अल-कायदा के शीर्ष नेतृत्व का सफाया कर उन्हें आश्रय और संरक्षण देने वाली तालिबान सरकार को जड़ से उखाड़ फेंकना था, लेकिन यह मिशन एक बड़ी विफलता साबित हुआ।
अफगानिस्तान में ऑस्ट्रेलिया के इस मिशन के परिणाम बेहद घातक साबित हुए, जिसमें उसके 41 सैनिकों की मौत हो गयी, 260 सैनिक घायल हुए, 500 से अधिक पूर्व सैनिकों ने आत्महत्या कर ली। इसके अलावा ‘पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर’ (पीटीएसडी यानी किसी सदमे के कारण पैदा होने वाले तनाव संबंधी विकार) से हजारों लोग पीड़ित हुए और इस मिशन में करीब 10 अरब डॉलर खर्च भी हुए।
अफगानिस्तान का उरुजगन प्रांत ऑस्ट्रेलियाई सेना के अभियानों का प्रमुख केन्द्र रहा। ऑस्ट्रेलिया के सुरक्षाबलों ने इस प्रांत में जुलाई 2006 में अपने अभियान की शुरुआत की। ऑस्ट्रेलियाई सैनिकों का दल दिसंबर 2013 में स्वदेश लौट गया। इस बार अगस्त में उरुजगन प्रांत में एक भी गोली नहीं चली और यह बड़ी ही आसानी से तालिबान के कब्जे में आ गया।
इन वर्षों के दौरान अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की सेना ने तालिबान से लड़ने के लिए अफगान नेशनल आर्मी को तमाम उपकरणों से लैस किया और बेहतर प्रशिक्षण भी दिया, लेकिन अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए 2001 से की गयीं तमाम कोशिशें विफल साबित होती दिखाई दे रही हैं।
विफलताओं की यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती, पिछले कुछ सप्ताहों में अफगानिस्तान में पिछले 20 वर्षों के दौरान हासिल की गयी कामयाबी के नष्ट होने पर चिंता जताई जा रही है।
अफगानिस्तान में पिछले 20 वर्षों के दौरान हर क्षेत्र में प्रगति हुई थी और एक पीढ़ी को इसका लाभ भी मिला था। अफगानिस्तान में शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों में वृद्धि हुई थी। देश के स्वास्थ्य ढांचे में काफी सुधार हुआ था और भारी विदेशी निवेश के परिणामस्वरूप अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था का पहिया फिर से घूमने लगा था। निजी क्षेत्र फल-फूल रहा था और स्वतंत्र मीडिया के होने से समाज की प्रगति हो रही थी।
अफगानिस्तान में स्वतंत्र समाज होने का सबसे बड़ा लाभ महिलाओं को मिल रहा था। देश की महिलाएं राजनीति, सार्वजनिक क्षेत्र और मीडिया मेंप्रमुख भूमिका निभाने लगी थीं, लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते प्रभाव के कारण महिलाओं के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की जा रही है।
अफगानिस्तान से ऑस्ट्रेलियाई सैनिकों की वापसी से करीब एक वर्ष पहले 2012 में ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार जेरेमी केली ने अपने लेख में ऑस्ट्रेलियाई सुरक्षा बल (एडीएफ) के उस बयान को खारिज किया था, जिसमें एडीएफ ने मिशन को सफल बताया था। जेरेमी ने उरुजगन प्रांत में यात्रा करते समय जो देखा, वह एडीएफ के बयान के काफी विपरीत था।
जेरेमी ने लिखा, "ऑस्ट्रेलियाई सेना ने अफगानिस्तान में अपनी उपलब्धियों को गिनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। यह सच है कि 2006 के बाद से उरुजगन प्रांत में स्वास्थ्य सुविधा केन्द्रों की संख्या में तीन गुणा इजाफा हुआ है और इसके साथ ही स्कूलों की संख्या भी 34 से बढ़कर 205 हो गयी है। यह संख्या काफी उत्साहवर्धक है, लेकिन एडीएफ ने वास्तविक कहानी नहीं बताई है। प्रांत के चोरा इलाके में कुल 32 स्कूल खोले गए, लेकिन केवल एक स्कूल में ही बच्चे आ रहे हैं।’’
तालिबान ने उरुजगन प्रांत की सभी प्रमुख सड़कों पर कब्जा कर लिया है और सुरक्षा बलों के साथ चल रही उसकी झड़पों ने स्वास्थ्य सुविधाओं और शिक्षा तक आम आदमी की पहुंच को प्रतिबंधित कर दिया है। इसके कारण प्रांत में आर्थिक गतिविधियों भी ठप हो गयीं हैं।
तालिबान ने हालांकि प्रांत में कुछ स्कूलों को खोलने की अनुमति दी है, लेकिन बालिकाओं की शिक्षा पर कड़ा प्रतिबंध लगा दिया गया है।
यदि उरुजगन प्रांत के लोगों को ऑस्ट्रेलियाई सेना की मौजूदगी से कुछ लाभ हुआ है, तो एडीएफ को इसका काफी खामियाजा भी भुगतना पड़ा है। अमेरिका के अफगानिस्तान मिशन में ऑस्ट्रेलिया सेना ने छोटी सी भूमिका निभाई। ऑस्ट्रेलिया ने इस मिशन में अपने विश्वसनीय सहयोगी अमेरिका का अनुसरण किया। मिशन की रणनीति बनाने में ऑस्ट्रेलिया की अहम भूमिका नहीं रही, इसलिए इस मिशन की विफलता के लिए ऑस्ट्रेलिया को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं होगा।
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