महिला अधिकारों और महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की नीति से जुड़ी फेमिनिस्ट विदेश नीति ने फ्रांस में कुछ प्रगति देखी है लेकिन उसका दुनिया में कोई व्यापक असर नहीं हो पाया. नारीवादी विदेश नीति का रास्ता अभी लंबा है.फ्रांस ने नारीवादी विदेश नीति का लक्ष्य हासिल करने की दिशा में काफी कदम उठाए हैं. खासकर महिलाओं को मंत्री पद देना इसी नीति का नतीजा है लेकिन दुनिया भर में औरतों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए ये कदम नाकाफी साबित हो रहे हैं. एक नई रिपोर्ट में ये बात सामने आई है.
नारीवादी विदेश नीति या फेमिनिस्ट डिप्लोमेसी का उद्देश्य है लैंगिक समानता और महिलाओं के हक को बढ़ावा देना, खासकर लैंगिक अधिकार और बच्चे पैदा करने से जुड़ा चुनाव. ये नीति देश के भीतर तो उत्साहजनक नतीजे देती नजर आ रही है लेकिन इस विचार को दुनिया भर में अपनाने का रास्ता अभी लंबा दिखाई देता है.
दुनिया के संकट सुलझाने के लिए बढ़ानी होगी औरतों की भागीदारी
क्या है फेमिनिस्ट डिप्लोमेसी
महिला अधिकारों और महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की नीति से जुड़ी फेमिनिस्ट यानी नारीवादी विदेश नीति जिन देशों में लागू की गई है वहां इसके अलग-अलग रूप हैं. लक्जमबर्ग, स्पेन, मेक्सिको, जर्मनी समेत चिली ने भी फेमिनिस्ट डिप्लोमेसी को अपनाया है. हालांकि एक सच ये भी है कि 2014 में इस विचार को दुनिया के सामने रखने वाला स्वीडन खुद पिछले साल सत्ता परिवर्तन के साथ ही इस रास्ते से हट गया.
फ्रांस में समानता पर नजर रखने वाली एक स्वतंत्र संस्था हाई काउंसिल फॉर इक्वलिटी की निदेशक पिएर-ब्रोसोलेट कहती हैं, ये विचार मुख्यधारा में आने से चूक गया है. हम उसे उतनी अहमियत नहीं देते जितनी देनी चाहिए. फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों जब दूसरी बार चुनकर सत्ता में आए तो उन्होने कैथरीन कोलोना को विदेश मामलों की मंत्री बनाया. ऐसा फ्रांस के इतिहास में महज दूसरी बार हुआ. कोलोना के दफ्तर में दो अन्य महिलाओं को शामिल किया गया.
महत्वाकांक्षी विचार होने के बावजूद इसे जरूरी प्रोत्साहन नहीं मिला जो ज्यादा असरदार होता. पिएर-ब्रोसोलेट कहती हैं, इसकी कोई औपचारिक परिभाषा नहीं है, ना ही इसे उस तरह की सरकारी शह मिली जो इसे लागू करवा सके. अगर आप पूरे विदेश मंत्रालय को देखें तो अब भी वहां रसूखदार पदों पर मर्द ही बैठै हैं. यहां तक कि माक्रों ने अपने हालिया बयानों में इस शब्द का जिक्र तक नहीं किया.
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अगुआ देश फ्रांस
कनाडा और स्वीडन के बाद फ्रांस उन देशों में हैं जिन्होने 2019 में फेमिनिस्ट डिप्लोमेसी को सबसे पहले अपनाया. इसी के बाद फ्रांसीसी महिला राजदूतों और कौंसुल जनरलों की ज्यादा संख्या में तैनाती हुई. नतीजा यह है कि अब महिलाएं ऐसे एक तिहाई पदों पर काबिज हैं जो एक दशक पहले केवल 14 फीसदी था.
हाई काउंसिल फॉर इक्वलिटी ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसके मुताबिक फ्रांस के भीतर चाहे जो भी प्रगति हासिल की गई हो लेकिन दुनिया भर में इसका कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिखा.
संस्था की निदेशिका सिल्वी पिएर-ब्रोसोलेट ने समाचार एजेंसी एएफपी से बातचीत में कहा, "अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में औरतों के अधिकारों का हनन बहुत खेदजनक है. अमेरिका, पोलैंड और हंगरी समेत दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में फ्रेंच फेमिनिस्ट डिप्लोमेसी के विचार को अपनाने की जरूरत है". ब्रोसोलेट ने अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का जिक्र करते हुए ये बात कही जिसमें अबॉर्शन का हक छीनकर महिलाओं के अपने शरीर पर अधिकार को गहरा धक्का पहुंचाया.
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छोटी सी आशा
हालांकि कूटनीतिज्ञों ने खुद उम्मीद नहीं छोड़ी है और उनका मानना है कि इसका फर्क तो पड़ा है. इस रिपोर्ट पर कोलोना कहती हैं, "रिपोर्ट उन सारी चीजों को पूरी तरह ध्यान में नहीं रखती है जहां हमने प्रगति की है और हमारा रिकॉर्ड काफी बढ़िया है. हालांकि ये रिपोर्ट हमारा उत्साह कम नहीं कर सकती. बेहतर जवाब ये होगा कि हम कुछ करके दिखाएं".
फ्रांस ने इस नीति के तहत दुनिया में जो मदद पहुंचाई है उसमें यूक्रेन में बलात्कार झेलने वाली महिलाओं की सहायता, महिला अधिकारों का हनन करने वाले देशों जैसे ईरान पर प्रतिबंध और अफ्रीका में औरतों की मदद के लिए आर्थिक सहायता जुटाना शाामिल है.
एसबी/एनआर (एएफपी)