अजरबैजान की राजधानी बाकू में अगले महीने होने वाले संयुक्त राष्ट्र के कॉप29 सम्मेलन में अमीर देशों पर दबाव रहेगा कि वो गरीब देशों को जलवायु वित्तीय सहायता के लिए दी जाने वाली धनराशि में सैकड़ों अरब डॉलर की बढ़ोतरी करें.इस बात पर पर गहरी असहमति है कि जलवायु वित्तीय सहायता या 'क्लाइमेट फाइनैंस' के लिए आखिर कितनी राशि चाहिए, यह रकम कौन देगा और इसमें क्या-क्या खर्च शामिल है.
इस वजह से यह तय है कि 11 से 22 नवंबर तक होने वाले कॉप29 सम्मेलन के एजेंडा में सबसे ऊपर 'क्लाइमेट फाइनैंस' ही होगा. चर्चा तो सबसे ज्यादा इसी को लेकर हो रही है, लेकिन विडंबना यह है कि अभी तक इसकी परिभाषा पर भी सहमति नहीं बन पाई है.
'क्लाइमेट फाइनैंसिंग' से क्या अभिप्राय है?
पेरिस समझौते में जो शब्दावली इस्तेमाल की गई थी, उसके मुताबिक 'क्लाइमेट फाइनैंस' का संक्षिप्त मतलब होता है वह रकम, जिसे इस तरीके से खर्च किया गया हो कि वह "ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन के प्रति मजबूत विकास की तरफ बढ़ने के अनुकूल हो."
इसमें सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा जैसी स्वच्छ ऊर्जा, इलेक्ट्रिक गाड़ियों जैसी अपेक्षाकृत हरित तकनीक और समुद्र के बढ़ते जलस्तर को रोकने के लिए तटबंध लगाने जैसे मद में लगने वाला सरकारी या निजी पैसा शामिल है. लेकिन, उदाहरण के तौर पर, क्या पानी बचाने वाले होटल को दी जाने वाली सब्सिडी को इसमें शामिल किया जाएगा?
इस तरह के सवालों को कॉप सम्मेलनों ने सीधे संबोधित नहीं किया है. वहां 'क्लाइमेट फाइनैंस' का मतलब उन मुश्किलों से हो गया है, जो विकासशील देशों के सामने ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए तैयार होने के लिए पैसे जुटाने को लेकर आती हैं. 1992 में हुई संयुक्त राष्ट्र की एक संधि के तहत, ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार मुट्ठीभर अमीर देश यह पैसा देने के लिए बाध्य थे.
साल 2009 में अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान, ब्रिटेन, कनाडा, स्विट्जरलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया 2020 तक सालाना 100 अरब डॉलर देने को राजी हो गए थे, लेकिन यह पहली बार सिर्फ 2022 में हो पाया. इस देरी ने भरोसे को कमजोर किया और इन आरोपों को जन्म दिया कि अमीर देश अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहे हैं. उम्मीद की जा रही है कि कॉप29 में करीब 200 देश साल 2025 के आगे के वर्षों के लिए एक नए वित्तीय लक्ष्य पर सहमत हो जाएंगे.