सिकल सेल के लिए उपलब्ध जीन थेरेपी सिर्फ तीन देशों में उपलब्ध है, जहां इस रोग के मरीज सबसे कम पाए जाते हैं. भारत और अफ्रीकी देशों में इसके मरीज सबसे ज्यादा हैं लेकिन वहां इलाज नहीं है.भारत के गौतम डोंगरे के दो बच्चे हैं. तंजानिया के पस्कासिया माजेजे का एक बेटा है. दोनों ही लोग अपने-अपने बच्चों की बीमारियों को लेकर परेशान हैं. तीनों बच्चों को एक ही बीमारी है जो उन्हें अपने-अपने माता-पिता से विरासत में मिली है. उनके खून में एक ऐसी गड़बड़ी है जिसके कारण रक्त-कोशिकाओं में भयंकर दर्द होता है. इसे सिकल सेल डिजीज यानी रक्त कोशिकाओं का रोग कहते हैं.
अब इन रोगियों को जीन थेरेपी से ठीक होने की उम्मीद दिख रही है लेकिन डोंगरे कहते हैं, "हम बस प्रार्थना कर रहे हैं कि यह इलाज हमारे लिए भी उपलब्ध हो जाए."
पर निकट भविष्य में डोंगरे की प्रार्थना का असर होने की संभावना कम ही है. विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत और अफ्रीका के उन दूर-दराज इलाकों में यह इलाज लोगों की पहुंच में नहीं है, जिन इलाकों में यह रोग सबसे ज्यादा पाया जाता है.
बस तीन देशों में इलाज
जीन थेरेपी अब भी ज्यादातर विकसित देशों में ही उपलब्ध है. यह दुनिया के सबसे महंगे इलाजों में से है और भारत या अफ्रीका के आदिवासी इलाकों में इसका खर्च वहन कर पाना लोगों के बस में नहीं है. दिक्कत सिर्फ इलाज की अधिक कीमत ही नहीं है. इसके लिए लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ता है और अत्याधुनिक उपकरणों व कुशल डॉक्टरों की जरूरत होती है.
सिकल सेल डिजीज के लिए दो जीन थेरेपी मान्यता प्राप्त हैं. अमेरिका ही ऐसा देश है जहां ये दोनों थेरेपी उपलब्ध हैं. इसके अलावा ब्रिटेन और बहरीन में भी एक-एक थेरेपी उपलब्ध है.
अमेरिका के न्यू ऑरलीन्स में सिकल सेल थेरेपी के विशेषज्ञ डॉ. बेंजामिन वॉटकिंस कहते हैं, "अधिकतर मरीज उन इलाकों में रहते हैं जहां इस तरह की थेरेपी उपलब्ध ही नहीं है. हम चिकित्सा जगत के लोगों को और पूरे समाज को इस बारे में सोचना होगा.”
लंदन में इस साल एक चिकित्सा सम्मेलन हुआ था जिसका केंद्रीय विषय जीन थेरेपी था. वहां भी सिकल सेल थेरेपी के अत्याधिक खर्च और जहां जरूरत है, वहां अनुपलब्धता को लेकर चर्चा हुई. उसके बाद पत्रिका नेचर में छपे संपादकीय में लिखा गया कि इतनी अधिक कीमत के कारण गरीब और विकासशील देशों के लोगों की पहुंच से इसका बाहर होना इस क्षेत्र में विकास के लिए भी हानिकारक है.
कुछ वैज्ञानिक इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि नए इलाज अगर सही मरीजों तक नहीं पहुंचे तो भविष्य में और नए इलाज कभी नहीं खोजे जाएंगे और सिकल डिजीज का पूरी तरह खत्म करने की संभावना हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी.
गरीब देशों पर मार
विकासशील और गरीब देशों में सिकल सेल रोग से मरने या अपंग होने की संभावना धनी देशों की तुलना में कहीं ज्यादा है. इसका देर से पता चलना और आधारभूत इलाज भी मुश्किल से मिलना घातक साबित होता है. डॉ. वॉटकिंस कहते हैं कि जीन थेरेपी इस बीमारी के इलाज में एक बहुत बड़ा कदम है लेकिन उन मरीजों को नहीं भुलाया जा सकता जिन्हें असल में इसकी जरूरत है.
सिकल सेल रोग जन्म के साथ ही होता है और मरीज पर जन्म से ही मार करता है. उसका हीमोग्लोबिन प्रभावित होता है. इस रोग के कारण लाल रक्त कोशिकाओं का आकार सिकल यानी दरांती जैसा हो जाता है. इससे रक्त प्रवाह प्रभावित होता है और असहनीय दर्द होता है. यह अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है और स्ट्रोक का भी खतरा होता है. फिलहाल इसका एकमात्र इलाज बोन मैरो ट्रांसप्लांट है, जिसके अपने खतरे और सीमाएं हैं.
दुनिया में सिकल सेल रोग के कितने मरीज हैं, इस बारे में कोई पुख्ता आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. विशेषज्ञ उनकी संख्या 60 से 80 लाख के बीच आंकते हैं. यह रोग उन इलाकों में ज्यादा पाया जाता है जहां मलेरिया का खतरा ज्यादा होता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि सिकल सेल यानी इस रोग से ग्रस्त कोशिकाएं मलेरिया से लड़ सकती हैं.
भारत में चुनौतियां
एक अनुमान के मुताबिक भारत में इस रोग के करीब 10 लाख मरीज हैं जबकि अफ्रीका में 50 लाख से ज्यादा लोग इससे पीड़ित हैं.
डोंगरे नागपुर में रहते हैं. वह नेशनल अलायंस फॉर सिकल सेल ऑर्गेनाइजेशंस के अध्यक्ष हैं और अपने परिवार के अलावा दूसरे रोगियों के रोजमर्रा के संघर्ष को देखते हैं. वह कहते हैं कि आम लोगों में ही नहीं, डॉक्टरों में भी रोग को लेकर जागरूकता नहीं है.
वह बताते हैं कि उनके बेटे गिरीश को जब वह पेट और टांगों में दर्द के लिए डॉक्टरों के पास लेकर जाते थे तो उन्हें कुछ समझ नहीं आता था. डोंगरे कहते हैं कि ढाई साल तक डॉक्टर यह पता नहीं लगा सके थे कि गिरीश को सिकल सेल रोग है. अन्य लोगों को तो सालों साल तक पता ही नहीं चलता कि उन्हें इतना दर्द क्यों होता है.
जुलाई में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिकल सेल उन्मूलन अभियान की शुरुआत की थी. इस अभियान का मकसद जागरूकता, शिक्षा, जल्द इस रोग का पता लगाना और इलाज उपलब्ध कराना है. डोंगरे इस कोशिश की तारीफ करते हैं लेकिन कहते हैं कि चुनौतियां बहुत बड़ी हैं.
वीके/एए (एपी)