27 फरवरी चंद्रशेखर आजाद की पुण्यतिथि पर विशेष: युवा क्रांतिकारी 'आजाद' की हुंकार थी देश की आन के लिए ‘जान के बदले जान’

काकोरी कांड के पश्चात जब अंग्रेजी सैनिकों से बचने के लिए उन्होंने मेकअप कर साधू के वेष में पुलिस को गच्चा देकर भागने में सफल हो गये थे. बाद में तो चंद्रशेखर ने इसे ही अपना हथियार बना लिया. एक बार पार्टी के लिए फंड जुटाने की कोशिश में वे वेष बदलकर गाजीपुर के ऐसे मरणासन्न साधू के साथ रहने लगे, थे जिसके बारे में उन्होंने सुन ऱखा था कि उसके बहुत पैसा है

चन्द्रशेखर आजाद ( फोटो क्रेडिट - twitter )

जब तक यह ‘बमतुल बुखारा’ मेरे पास है, किसी मां के लाल में इतनी ताकत नहीं है कि वह मुझे जीते जी पकड़ ले.’

महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने यह संवाद एक औपचारिक बातचीत के दरम्यान अपने क्रांतिकारी साथियों के बीच शेयर की थी, तब किसी को इस बात का अहसास भी नहीं रहा होगा कि उनकी यह पंक्ति उनके जीवन का कड़वा सच साबित हो सकती है. गौरतलब है कि चंद्रशेखर आजाद अपनी माउजर पिस्तौल को प्यार से ‘बमतुल बुखारा’ कहते थे.

चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई को मध्यप्रदेश के भाबरा गांव में एक सनातनधर्मी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता पं. सीताराम तिवारी प्रकाण्ड पंडित थे, मगर स्वभाव से निहायत दयालु प्रवृत्ति के थे. मां जगरानी देवी गृहिणी थीं. चंद्रशेखर का बालपन ज्यादातर आदिवासी बहुल इलाके में बीता. भील बच्चों के साथ वह काफी छोटी उम्र में तीर-धनुष के निशाने में पारंगत हो गये थे. बालक चन्द्रशेखर आज़ाद का मन शुरु से देश की आज़ादी के लिए कुछ करने को मचलता था. लेकिन छोटा होने के कारण वह अकसर अपने जोश को दबा देते थे.

शिक्षा बीच छोड़ क्रांति की ओर बढ़े चंद्रशेखर

चंद्रशेखर पढ़ाई में औसत छात्र थे. पंडित जी की भी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने से वह अपने इकौलते बेटे की पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान नहीं दे सके थे. उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई थी. उऩका मन घर पर किंचित नहीं लगता था. वह अकसर घर से भागने की फिराक में रहते थे. एक बार काम की तलाश में वह बंबई भी गये, मगर मन नहीं लगा तो बनारस आकर संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया. उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था। इसी समय यानि 1919 में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने युवा चंद्रशेखर को उद्वेलित कर दिया। वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल "हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ" के सदस्य बन गये।

क्रांतिकारी जीवन:

1921 में असहयोग आन्दोलन का फरमान जारी किया तो वह चिंगारी ज्वालामुखी बनकर फट पड़ी. तमाम अन्य छात्रों की भाँति चन्द्रशेखर भी सडकों पर उतर आये। अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और सजा के तौर पर उनकी पीठ पर 15 कोड़े लगाये गये. लेकिन हतोत्साह होने के बजाय उऩके भीतर आजादी का जोश दुगुना हो गया. 1922 में गांधीजी ने चंद्रशेखर को जब असहयोग आन्दोलन से बाहर कर दिया था, तो उन्हें बहुत गुस्सा आया था.

वेषभूषा बदलने में माहिर

काकोरी कांड के पश्चात जब अंग्रेजी सैनिकों से बचने के लिए उन्होंने मेकअप कर साधू के वेष में पुलिस को गच्चा देकर भागने में सफल हो गये थे. बाद में तो चंद्रशेखर ने इसे ही अपना हथियार बना लिया. एक बार पार्टी के लिए फंड जुटाने की कोशिश में वे वेष बदलकर गाजीपुर के ऐसे मरणासन्न साधू के साथ रहने लगे, थे जिसके बारे में उन्होंने सुन ऱखा था कि उसके बहुत पैसा है. लेकिन वह साधू की सेवा में ऐसे संलिप्त हुए कि मरणासन्न साधु खा-पीकर खूब हट्टा-कट्टा बन गया था. अंततः एक दिन वह उससे बिना बताये, उसकी कुटिया छोड़ दिया.

झांसी को बनाया क्रांति का शिक्षा केंद्र

झांसी के करीब ओरछा के जंगलों में उन्होंने खुद व अन्य साथियों की निशानेबाजी की धार को मजबूत करना शुरु किया. अचूक निशानेबाज होने के कारण चंद्रशेखर आजाद दूसरे क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने के साथ-साथ पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के छ्द्म नाम से बच्चों के अध्यापन का कार्य भी करते थे. साथी क्रांतिकारियों के सहयोग से 1928 में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की मदद से ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ को ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में बदल दिया. ‘जान के बदले जान’ के सिद्धांतों पर कार्य करनेवाले आजाद और उनकी टीम भगत सिंह. सुखदेव और राजगुरु ने ब्रिटिश जूनियर पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स को गोली मारकर हत्या दी. क्योंकि वे सभी लाला लाजपत राय पर जघन्य लाठी चार्ज से हुई मौत का प्रमुख दोषी सॉन्डर्स को मानते थे. तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड इरविन ने इन तीनों को फांसी की सजा सुनाई थी. आज़ाद के नेतृत्व में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया। यह विस्फोट अंग्रेज़ सरकार के काले क़ानूनों के विरोध में किया गया था.

कैसे हुई मौत

आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने के लिए हरदोई जेल में गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले. विद्यार्थी से परामर्श कर 27 फ़रवरी 1931 को वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की. आजाद ने पण्डित नेहरू से आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से तीनों क्रांतिकारियों की फाँसी को उम्र-कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें! लेकिन कहा जाता है कि नेहरु जी ने आजाद को सहयोग न दे पाने की बात कर उन्हें वापस भेज दिया. इसके बाद की कार्यवाहियों पर अल्फ्रेड पार्क में वह अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सीआईडी का एसएसपी नॉट बाबर जीप से वहां आ पहुंचा. उसके पीछे- भारी संख्या में कर्नलगंज थाने की पुलिस भी थी. दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई। यह दुखद घटना घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी. आजाद की शहादत के सोलह वर्षों बाद 15 अगस्त सन् 1947 को हिन्दुस्तान की आजादी का उनका सपना पूरा तो हुआ किन्तु वे उसे जीते जी नहीं देख सके.

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