श्री स्वामी समर्थ महाराज का प्राकट्य कब हुआ? वह कहां से आए थे, कौन थे, इसके बारे में प्रमाणिक दस्तावेज नहीं है. लेकिन एक कहानी के अनुसार माना जाता है कि श्री स्वामी समर्थ महाराज का अवतार पंजाब प्रांत के हस्तिनापुर से लगभग 24 किमी दूर छेली खेड़ा नामक गांव में बरगद के पेड़ के पास हुआ था. 1856 में अक्कलकोट के खंडोबा मंदिर में प्रकट हुए, वह दिन चैत्र शुद्ध द्वितीया तिथि थी, उसके अनुसार इस वर्ष 23 मार्च को स्वामी जी का प्राकट्य दिवस मनाया जायेगा. यहां प्रस्तुत है स्वामी जी के जीवन को कुछ रोचक संस्मरण.
स्वामी समर्थ जी महाराज को श्रीपाद वल्लभ और नृसिंह सरस्वती के बाद भगवान श्री दत्तात्रेय का तीसरा अवतार माना जाता है. कहा जाता है कि अक्कलकोट में प्रकट होने से पहले स्वामी जी इधर-उधर भ्रमण करते रहे, और मंगलवेधे आये थे. यहां वे काफी लोकप्रिय प्राप्त हुई थी. यहां से वह सोलापुर होते हुए फिर अक्कलकोट आये.
भक्तों से उसी रूप में मिलते थे, जो भक्त चाहते थे
स्वामी समर्थ पूर्ण ब्रह्म रूप में श्री दत्त महाराज के तीसरे अवतार हैं. भक्तों ने उन्हें जिस रूप में पहले देखा, वह उसे उसी रूप में दर्शन देते थे. किसी ने उन्हें श्री विथू मौली के रूप में तो किसी ने श्री भगवान विष्णु के रूप में और किसी ने भगवती के रूप में देखा और महसूस किया था. वह हमेशा से अपने भक्तों के साथ खड़े रहते हैं और उन्हें आश्वासन देते हैं कि डरो मत मैं तुम्हारे साथ हूं.
खंडोबा मंदिर में आश्रय!
स्वामी समर्थ महाराज जी जब पहली बार अक्कलकोट आये, तो उन्होंने खंडोबा मंदिर के बरामदे में अपना आसन जमाया था. इस प्रवास के दरम्यान उन्होंने कई चमत्कार किए, लेकिन उन्होंने राजा और रंक में कभी कोई फर्क नहीं रखा. वह हर किसी पर समान प्यार बरसाते थे. यहां उन्होंने सबको बताया कि वह यजुर्वेदी ब्राह्मण हैं, उनका गोत्र कश्यप तथा राशि मीन है. उन्होंने अपने शिष्यों श्री लप्पा एवं श्री चोळप्पा को आशीर्वाद दिया. वहीं से स्वामी समर्थ जी ने पूरे देश का भ्रमण किया. हर जगह पर उन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता था.
स्वामी जी और गोंडवलेकर महाराज की तलवार
स्वामी जी के संदर्भ में श्री गोंडवलेकर महाराज की जीवनी में काफी कुछ वर्णित है. ऐसी ही एक घटना के अनुसार वासुदेव बलवंत फड़के अकसर तलवार लेकर स्वामी समर्थ जी का दर्शन करने जाते थे. उन्हें लगता था कि यदि स्वामी जी उनकी तलवार पर हाथ रख देंगे, तो उनकी क्रांति सफल हो जायेगी. स्वामी जी ने नौकर को बुलाया और फड़के का तलवार बाहर ले जाने को कहा. यह इस बात का प्रतीक था कि फड़के की क्रांति सफल नहीं होगी. यह देख वासुदेव बलवंत फड़के निराश हो गये, और तलवार लेकर लौट आये. उधर श्री गोंडवलेकर महाराज ने भी फड़के को चेतावनी दी कि अभी क्रांति का सही समय नहीं आया है.
स्वामी जी ने 600 वर्ष की आयु में ली महासमाधि
स्वामीजी के बारे में प्रचलित है कि उन्होंने विभिन्न स्थानों पर 400 सालों तक तपस्या की. साल 1458 में नृसिंह सरस्वती श्री शैल्य यात्रा के कारण कर्दली वन में वह अदृश्य हुए थे. इसी वन में स्वामीजी 300 साल तक समाधि अवस्था में थे. इस दरम्यान उनके शरीर के चारों ओर चींटियों ने बांबी बना लिया. एक दिन एक लकड़हारे की गलती से बांबी पर कुल्हाड़ी गिरी. कुल्हाड़ी उठाने पर उसे खून दिखा. उसने बांबी की सफाई की तो एक बुजुर्ग योगी साधना में लीन दिखे. लकड़हारा उनकी चरणों में गिरकर ध्यान भंग करने के अपराध में छमा याचना करने लगा. योगीजी ने कहा ये तुम्हारी गलती नहीं बल्कि मुझे पुनः लोगों को सेवाएं देने का दैवीय आदेश है. नये स्वरूप में 854 से 30 अप्रैल 1878 तक अक्कलकोट में रहकर लगभग 600 वर्ष की आयु में उन्होंने महासमाधि ली.