Shaheed Diwas 2022: शहीद दिवस पर इतनी दुविधा क्यों? जानें 23 मार्च को शहीद दिवस क्यों मनाते हैं?
Shaheed Diwas 2022 (Photo Credits: File Image)

भारत में राष्ट्रीय स्तर पर अगर दिवस विशेष सबसे ज्यादा दुविधापूर्ण और विवादास्पद है तो वह शहीद दिवस. हमारे यहां एक शहीद दिवस 30 जनवरी को मनाया जाता है, इस दिन महात्मा की हत्या की गई थी. रानी लक्ष्मीबाई की शहादत पर उनके जन्म दिन 9 नवंबर को शहीद दिवस मनाया जाता है, जबकि 13 जुलाई को जम्मू कश्मीर में शहीद दिवस मनाया जाता है, इस दिन 22 लोगों को मौत की घाट उतार दिया गया था. 17 नवंबर को उड़ीसा में शहीद दिवस मनाया जाता है, क्योंकि इस दिन लाला लाजपत राय की हत्या की गई थी. वहीं 23 मार्च को शहीद दिवस इसलिए मनाया जाता है क्योंकि इस दिन अंग्रेजों ने हमारे तीन क्रांतिकारियों सरदार भगत सिंह, सुखदेव थापर एवं शिवराम राजगुरु को अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी पर लटका दिया था. हम बात करेंगे 23 जनवरी के शहीद दिवस की.

भारत को अंग्रेजी हुकूमत से आजादी दिलाने के लिए दो तरह से संघर्ष किया गये थे, एक महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलनों के रूप में तो दूसरा संघर्ष क्रांतिकारियों ने किया था, जान के बदले जान और खून के बदले खून के रूप में, और जानकार बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत गांधीजी आंदोलनों से ज्यादा खौफ खाते थे भारतीय क्रांतिकारियों से, क्योंकि ये जोशीले थे, युवा थे, इन्हें अपनी जान की किंचित चिंता नहीं थी. ऐसे ही क्रांतिकारियों में थे सरदार भगत सिंह, सुखदेव थापर एवं शिवराम राजगुरु जिन्हें अंग्रेज सरकार ने नियम-कानून को ताक पर रखते हुए फांसी पर लटका दिया था. आखिर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को अंग्रेजी हुकूमत ने क्यों फांसी पर लटकाया? उनका कुसूर क्या था? यह भी पढ़ें : Shaheed Diwas Quotes 2022: शहीद दिवस पर ये Quotes, WhatsApp Stickers और HD Wallpapers के जरिए भेजकर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान को करें याद

03 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन के भारत में लागू होने के खिलाफ लाला लाजपत राय ने विरोध स्वरूप आंदोलन छेड़ा, तो अंग्रेज पुलिस के निर्ममता पूर्वक लाठियां चलाने से लाला लाजपत राय घायल हो गये, और 17 नवंबर 1928 को उनकी मृत्यु हो गई. क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत के प्रमुख अपराधी ब्रिटिश पुलिस ऑफीसर सांडर्स की एक माह के भीतर बदला लेने की सौगंध खाई. अंततः 17 दिसंबर 1928 को चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने सांडर्स को गोली मारकर लालाजी की मौत का बदला ले लिया.

अंग्रेज सरकार दिल्ली असेंबली में पब्लिक सेफ्टी बिल और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ जैसे दमनकारी कानून लागू करने की तैयारी में थी. 'ट्रेड डिस्प्यूट बिल' पास किया जा चुका था. इस बिल के विरोध में 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव एवं राजगुरु ने सेंट्रल एसेंबली में बम फेंककर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ परचे फेंके. वे चाहते तो फरार हो सकते थे, उन्होंने बिना विरोध पुलिस के सामने संरडर कर दिया. लेकिन आजाद एक बार पुनः फरार हो गये. इसके बाद तीनों क्रांतिकारियों पर ब्रिटिश कोर्ट में मुकदमा चला और अंततः उन्हें सजा स्वरूप 24 मार्च को फांसी पर चढ़ाकर मृत्यु की सजा सुनाई.

इस आदेश के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दिया गया. कहते हैं कि ब्रिटिश अधिकारियों से अच्छे रिश्ते होने के बावजूद गांधीजी या नेहरू जी ने क्रांतिकारियों की फांसी रोकने की किंचित कोशिश नहीं की. लेकिन कहा जाता है कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष पंडित मदन मोहन मालवीय ने 14 फरवरी 1931 को वायसराय के सामने अपील दायर किया था कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा में रियायत अथवा माफी दिलवा दें. ब्रिटिश अधिकारी तीनों क्रांतिकारियों को छोड़ने का रिस्क नहीं लेना चाहते थे. तीनों क्रांतिकारियों को 24 मार्च को फांसी पर चढ़ाया जाना था, लेकिन आम जनता के बीच उनकी लोकप्रियता को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने एक दिन पहले यानी 23 मार्च को ही चोरी-छिपे उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया. उन्होंने अंधेरी रात में तीनों का अंतिम संस्कार भी सतलज नदी के किनारे करने की कोशिश की, लेकिन क्राँतिकारियों की नजर उन पर पड़ गई. उन्होंने पुलिस अधिकारियों पर धावा बोलकर तीनों के शव अपने कब्जे में ले लिया. कहते हैं कि अगले दिन जब उसी सतलज नदी के किनारें उनका अंतिम संस्कार किया गया तो उस समय तीन शहीदों के अंतिम संस्कार में जिस तरह भीड़ इकट्ठी हुई, वैसी भीड़ आज तक लाहौर में नहीं देखी गयी.