साईं बाबा से जुड़ी अनोखी बातें, इसीलिए बाबा को प्रिय था कफनी (कुर्ता), चिमटा और चंदन
साईं बाबा ( फोटो क्रेडिट - फाइल )

शिर्डी के साईं बाबा के भक्तों के मन में बाबा के प्रति जितनी गहरी आस्था देखी-सुनी जाती है, उतनी किसी अन्य संत, महात्मा अथवा शंकराचार्यों के प्रति नहीं देखी गयी। हरिबाबू के नाम से लोकप्रिय बाबा को ‘साईं’ नाम स्वमेव मिल गया. साईं बाबा की युवाकाल से एक ही पहचान थी, माथे पर चंदन का तिलक, हाथों में चिमटा और देह पर कफनी. कहते है कि बाबा को इन तीनों वस्तुओं से इतना लगाव था कि जीवन पर्यंत वह इसके साथ बने रहे। आखिर क्या था चंदन, चिमटा और कफनी के पीछे का सत्य...

साईं बाबा उर्फ हरिबाबू

साईं बाबा के जन्म और जन्मस्थली को लेकर तमाम भ्रांतियां हैं, लेकिन मराठी साहित्यकार शशिकांत शांताराम गडकरी की पुस्तक ‘सद्गुरू सांई दर्शन’ के अनुसार बाबा का जन्म 28 सिंतबर 1835 को महाराष्ट्र के पाथरी गांव में हुआ था. पिता गंगाभाऊ भुसारी और माता देवकी गिरी के पांच पुत्रों में से तीसरे नंबर के पुत्र थे हरिबाबू, जो आगे चलकर ‘साईं बाबा’ के रूप में लोकप्रिय हुए. हरिबाबू के बालपन में ही एक दुर्घटना में उनके पिता का देहांत हो गया. तब हरिबाबू को वली फकीर अपने साथ ले गये. वली फकीर ने उन्हें अपने साथ पूरे देश का भ्रमण किया. लेकिन एक दिन घर की याद जब सताई तो वे शिर्डी आ गये. उनके वापसी पर उनकी पड़ोसन चांद बी उन्हें वैंकुशा आश्रम में छोड़कर आईं. उस समय हरिबाबू एकदम फक्कड़ साधु थे, उन्हें जो भिक्षा मिलती, उसे अपने कुत्ते और पक्षी को खिला देते थे.

साईं का सटका (चिमटा)

एक बार इलाहाबाद होते हुए हरिबाबू अयोध्या पहुंचे थे. वहां नाथ पंथ के एक संत उनसे बहुत प्रभावित हुए. वह उन्हें सरयू तट पर ले गये. सरयू में स्नान करने के बाद उनके मस्तष्क पर चंदन का तिलक लगाया और एक चिमटा भेंट करते हुए कहा, -बेटा तू हमेशा मस्तष्क पर ऐसे ही चंदन का तिलक करना और यह चिमटा सदा साथ रखना. कहते हैं कि हरिबाबू ने जीवन पर्यंत मस्तष्क पर चंदन का तिलक लगाया और हाथ में चिमटा रखते थे. लेकिन देह त्यागने से पहले चिमटा उन्होंने एक हाजी बाबा को भेंट कर दिया था.

कफनी (कुर्ता)

बताया जाता है कि जब चांद बी हरिबाबू को लेकर वैकुंशा आश्रम में गईं तो दोनों की वेशभूषा देखकर वैकुंशा संत ने उन्हें मुस्लिमसमझकर आश्रम में प्रवेश करने से मना कर दिया. वैकुंशा दैंवीय शक्तियों से संपन्न थे. चांद बी ने मन ही मन वैकुंशा बाबा की प्रार्थना की तो ध्यानमग्न वैकुंशा बाबा की तंद्रा टूटी. उन्होंने दोनों के बुलवाकर हरिबाबू से कुछ सवाल किये. हरिबाबू के जवाब से वह इतने प्रभावित हुए कि उन्हें न केवल आश्रम में रहने की अनुमति दी बल्कि अपना सबसे प्रिय शिष्य बना लिया.

एक दिन गुरु वैकुंशा ने अपनी सारी दिव्य शक्तियां हरिबाबू को देने के पश्चात उन्हें जंगल लेकर गये, वहां उन्होंने पंचाग्नि तपस्या की. वहां से जब वे लौट रहे थे, तो कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम हरिबाबू पर ईंट-पत्थर फेंकने लगे. वैकुंशा ने हरिबाबू को बचाना चाहा तो एक ईंट का टुकड़ा वैकुंशा के माथे पर लगा. हरिबाबू ने तुरंत एक कपड़े से गुरुजी जी का रक्त साफ किया. वैकुंशा ने वही कपड़ा हरिबाबू को देते हुए का कहा कि ये कफनी संसार से मुक्ति, ज्ञान व सुरक्षा के लिए हैं. जिस ईंट से से वैकुंशा को चोट लगी थी, उसे हरिबाबू ने अपनी झोली में रख लिया. कहते हैं कि ईंट का वह टुकड़ा एक झोले में रखकर उसे सिर के नीचे रखकर सोते थे हरिबाबू. एक दिन उनके भक्त माधव फासले से गलती से ईंट टूट गयी, तब हरिबाबू ने कहा अब मेरे जाने का वक्त आ गया है.

कैसे बना शिर्डी तीर्थ स्थल

एक वैकुंशा ने हरिबाबू को बताया कि 80 वर्ष पूर्व जब वे स्वामी समर्थ रामदास की चरण पादुका के दर्शन हेतु सज्जन गढ़ गये हुए थे तो वापस लौटते हुए शिर्डी में एक नीम के पेड़ के नीचे रुके थे. वहां बैठृ-बैठे उन्होंने गुरु रामदास का ध्यान किया तो गुरु रामदास ने कहा कि तुम्हारे शिष्यों में से एक शिष्य इसी जगह आकर रहेगा और उसके कारण यह स्थान तीर्थस्थल बन जायेगा. आज वही क्षेत्र शिर्डी के साईंनगर के नाम से दुनिया का नामचीन तीर्थ स्थल बन चुका है.

इस तरह हरिबाबू बने साईं बाबा ?

उन दिनों शिर्डी में अकसर हिंदू-मुसलमानों के बीच चर्चा होती कि हरिबाबू हिंदू हैं या मुसलमान? एक बार हरिबाबू बिना किसी को बताये शिर्डी छोड़कर चले गये. कहा जाता है कि तीन साल बाद चांदपाशा पाटिल (धूपखेड़ा के मुस्लिम जागीरदार) की साली के निकाह पर बैलगाड़ी में बैठकर बाराती बनकर आये, तो अपने सामने एक युवा फकीर को देखकर विश्वकर्मा समुदाय के म्हालसापति ने हरिबाबू का स्वागत करते हुए कहा, आओ आओ साईं... बस तभी से हरिबाबू पूरे शिर्डी में साईं बाबा के नाम से लोकप्रिय हो गये.