इस वर्ष हम झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की 164 वीं पुण्य तिथि मनायेंगे. ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहला स्वतंत्रता आंदोलन शुरू करने का श्रेय रानी लक्ष्मीबाई को ही जाता है, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार को चुनौती देते हुए कहा था कि वे जीते जी झांसी को अंग्रेजों के हवाले नहीं करेंगी.
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ महारानी लक्ष्मीबाई ने 1857 में करो या मरो की चुनौतियों के साथ युद्ध किया था. अंग्रेजी सरकार की षड्यंत्रकारी नीति का उन्होंने खुलकर विरोध किया था. इसे स्वतंत्रता के लिए लड़े गये पहले युद्ध के रूप में देखा जाता है. कहते हैं कि रणभूमि में जब लक्ष्मीबाई की तलवार चमकती तो अंग्रेजों की रूहें कांप जाती थी. रानी लक्ष्मी बाई ने अपने जीवन में अंग्रेजों और विरोधियों से कई लड़ाइयां लड़ी और दुश्मनों के दांत खट्टे किये. आज भी रानी लक्ष्मीबाई को ‘नारी शक्ति का प्रतीक’ माना जाता है.
शौक तलवारबाजी और घुड़सवारी की
साल 1828 में वाराणसी में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में जन्मीं महारानी लक्ष्मीबाई बचपन में नाम मणिकर्णिका के नाम से जानी जाती थीं, लोग उन्हें प्यार से मनु कहते थे. उनके पिता मोरोपंत तांबे कल्याण प्रांत के युद्ध के कमांडर थे और बिठूर जिले के पेशवा बाजीराव द्वितीय के लिए काम करते थे. माँ भागीरथी सप्रे सामान्य गृहिणी थीं. मणिकर्णिका जब मात्र चार साल की थीं, माँ की मृत्यु हो गई. लक्ष्मीबाई को घुड़सवारी और तलवारबाजी का बहुत शौक था. कहते हैं कि वह सुबह-सवेरे जब अपने महल से मंदिर जाती थीं तो पालकी के बजाय घोड़े पर सवार होकर जाना पसंद करती थीं.
मणिकर्णिका से महारानी बनना
मणिकर्णिका की शिक्षा घर पर ही हुई थी. लेकिन किशोरवय तक पहुंचते-पहुंचते वह निशानेबाजी, तलवारबाजी, मल्लखंब और घुड़सवारी में निपुण हो गई थीं. साल 1842 में 12 वर्ष की आयु में मणिकर्णिका का विवाह झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर से हो गया था. झांसी के महाराजा ने उनका नाम मणिकर्णिका से रानी लक्ष्मीबाई कर दिया गया. विवाह के बाद उन्होंने राजकुमार दामोदर राव को जन्म दिया लेकिन कुछ माह बाद ही उनके बच्चे का निधन हो गया. इसके पश्चात गंगाधर राव ने अपने छोटे भाई के पुत्र आनंद राव को गोद लिया, बाद में उसे नाम दामोदर राव नाम दिया.
अंग्रेजों को चेतावनी, जीते जी नहीं देंगे झांसी
कुछ समय पश्चात खराब स्वास्थ्य के कारण गंगाधर राव का निधन हो गया. ब्रिटिश हुकूमत साम दाम दण्ड भेद किसी भी तरह से झांसी को ब्रिटिश कंपनी का हिस्सा बनाने का षड़यंत्र रच रहे थे. इसी के तहत अंग्रेजों ने दामोदर राव को झांसी का वारिस मानने से स्पष्ट इंकार कर दिया था. 27 फरवरी 1854 को लॉर्ड डलहौजी गोद नीति के अंतर्गत दामोदर राव को गोद को अस्वीकृत कर झांसी को अंग्रेजी राज्य में शामिल करने का आदेश पारित कर दिया. उन्होंने लक्ष्मीबाई को पेंशन मुकर्रर कर दिया. लेकिन लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश हुकूमत को स्पष्ट संदेश दे दिया कि वे अंग्रेजों की चाल में नहीं आने वाली हैं, और वे झांसी अंग्रेजों को नहीं देंगी.
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लक्ष्मीबाई ने आजादी की नींव रखी
अगर कहा जाये कि यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता संग्राम की नींव पड़ी तो गलत नहीं होगा. झांसी की रानी के विद्रोह के साथ ही उत्तरी भारत के तमाम नवाब एवं राजे-महाराजों में असंतुष्ट हो गये और समस्त उत्तर भारत में ब्रिटिश हुकूमत का विरोध की आग धधक उठी. रानी ने इस आग में घी डालना शुरु किया और देखते ही देखते स्वतंत्रता की ज्वाला पूरे भारत में भड़क उठी.
अंग्रेजी सरकार के लोगों को एकजुट करना
नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील, अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा और तात्या टोपे सभी लक्ष्मीबाई की बातों से सहमत थे. सभी के समर्थन से रानी ने ग्वालियर पर हमला कर उसे अपने कब्जे में ले लिया. सभी जश्न में डूब गये, लेकिन रानी जानती थी कि अंग्रेज चुप नहीं बैठेंगे. वे जब रणभूमि में उतरती तो अंग्रेज सैनिक उनकी तलवार की चमक से कांप उठते थे, लेकिन महारानी मुट्ठी भर सैनिकों से कब तक सामना करतीं. सेनापति ह्यूरोज भारी सेना लेकर रानी लक्ष्मीबाई के पीछे पड़ गया, और पुनः ग्वालियर पर कब्जा कर लिया. ह्यूरोज की भारी भरकम सेना से लड़ती रही. अंततः 18 जून 1858 को ग्वालियर में अंग्रेजी सेना के हमले में घायल रानी लक्ष्मीबाई मृत्यु हो गई.