Shaheed Diwas : भारत (India) पर सौ साल से ज्यादा समय तक राज करनेवाले ब्रिटिश हुकूमत (British rule) के किसी ने दांत खट्टे किये या उन्हें देश छोड़ने को मजबूर किया, तो इसका श्रेय केवल आजादी के दीवानों क्रांतिकारियों को जाता है. वे क्रांतिकारी ही थे, जिन्होंने आम ब्रिटिश सिपाहियों से लेकर आला अफसरों तक की नींदें उड़ा दी थी. यह उनके नाम की ही दहशत थी, अगर कोई क्रांतिकारी एक बार उनकी राडार पर आ जाता, वे उसे सरेआम या चोरी-छिपे फांसी पर लटकाने से नहीं चूकते थे. ऐसा करते समय वे न संविधान की मर्यादा देखते थे, ना क्रांतिकारियों की उम्र और ना ही उनके क्राइम स्तर को न्यायिक तरीके से आकलन करते थे. यह भी पढ़े: Shaheed Diwas 2021 HD Images: शहीद दिवस पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को करें याद, भेजें ये WhatsApp Stickers, Facebook Messages और फोटोज
उनके काले कानून में क्रांतिकारियों के लिए सिर्फ 'मौत' लिखी होती थी. ब्रिटिश हुकूमत की बदनीयती की ऐसी ही एक काली रात थी 23 मार्च 1931 की, जब अंग्रेजी हुकूमत ने आजादी के तीन दीवानों भगत सिंह (24 वर्ष), राजगुरु (24 वर्ष) और सुखदेव (24 वर्ष) को चोरी-छिपे फांसी पर लटका दिया था. आज उसी 23 मार्च को देश शहीद-दिवस के रूप में सेलीब्रेट करता है. आज देश शहीद दिवस की 90 वीं बरसी मना रहा है. आज के युवाओं के मन में यह प्रश्न जरूर उठता होगा कि आखिरकार ब्रिटिश हुकूमत ने तीनों युवा क्रांतिकारियों को फांसी पर क्यों लटकाया? आइये जानें इस शहादत की द्ववित गाथा.
शहादत की गाथा
साल 1928 में साइमन कमीशन के खिलाफ पूरे देश में धरना-प्रदर्शन हो रहे थे. कहते हैं कि 30 अक्टूबर 1928 को यह बिल जब पंजाब पहुंचा तो बिल के विरोध में वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता लाला लाजपत राय ने भी हिस्सा लिया. इस पर खिसियाकर पंजाब पुलिस के डीएसपी सांडर्स ने लाला जी पर इतनी लाठियां बरसाईं, कुछ दिनों बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी. इससे पहले अमृतसर में 13 अप्रैल, 1919 को वैसाखी के दिन रॉलेट एक्ट के विरोध कर रहे लोगों के नरसंहार से भगतसिंह के मन में पहले से ही ब्रिटिश हुकूमत के प्रति जहर भर दिया था. अब लालाजी की मृत्यु से भगत सिंह के तन-बदन में आग भर गयी थी. उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर सांडर्स की योजनाबद्ध ढंग से गोली मारकर हत्या कर दी. इस संदर्भ में ऐसा भी कहा जा रहा है कि लाला की मौत का जिम्मेदार सांडर्स नहीं बल्कि पुलिस कमिश्नर स्कॉट था, और भगत सिंह एवं उनके उनके साथी स्कॉट को ही मारना चाहते थे, लेकिन गलती से सांडर्स निशाने पर आ गया.
अंग्रेज हुकूमत की इस तरह दमनात्मक नीतियों के विरोध में भगत सिंह और उनके साथियों ने एक योजना बनाई. कहते हैं कि भगतसिंह इस कार्रवाई में किसी तरह का खून खराबा नहीं चाहते थे, वे लोग बस अपनी आवाज ब्रिटिश हुकमत तक पहुंचाना चाहते थे. 8 अप्रैल 1929 को वे बड़े गुपचुप तरीके से केंद्रीय असेंबली में प्रवेश कर गये, और जैसे ही बिल संबंधी घोषणा हुई, भगतसिंह और चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने साथियों के साथ पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल के विरोध में सेंट्रल असेंबली में 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाते हुए पहले पर्चे फेंके, फिर बम फेंका. परचों पर लिखा था, 'आदमी को मारा जा सकता है, उसके विचार को नहीं. बड़े-बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज जरूरी है.' कहते हैं कि बम खाली स्थान पर फेंका गया था, ताकि कोई हताहत नहीं हो. इस घटना ने अंग्रेज़ी हुकूमत की सुरक्षा व्यवस्था की न केवल पोल खोल कर रख दी, बल्कि क्रांतिकारियों के साहस और उत्साह से उनका विश्वास भी डगमगा गया था. भगत सिंह चाहते तो अपने साथियों के साथ केंद्रीय असेंबली से सुरक्षित भाग सकते थे, लेकिन पर्चे फेंकने और नारा लगाने के बाद उन्होंने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया. अलबत्ता आजाद उस जगह से भाग निकले थे. कहते हैं कि यह भी क्रांतिकारियों की सोची-समझी योजना का ही एक हिस्सा था.
कानून को ताक पर रखकर दी गई शहीदों को फांसी!
बाद में कुछ अन्य क्रांतिकारियों को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, जिसमें राजगुरू और सुखदेव भी शामिल थे. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव पर देशद्रोह और सांडर्स की हत्या के अपराध का मुकदमा चला, और इन तीनों क्रांतिकारियों को 24 मार्च, 1931 की सुबह 8 बजे फांसी की सजा सुनाई गयी. इस फांसी की खबर से पूरे देश में हंगामा मच गया, लोग खुलकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सड़कों पर आ गये थे. विद्रोह का इतना उग्र रूप देखकर अंग्रेज अधिकारी भी दहशत में थे. अंततः ब्रिटिश अधिकारियों ने विचार-विमर्श कर अदालत द्वारा फांसी के लिए मुकर्रर समय को ताक पर रखते हुए एक दिन पूर्व यानी 23 मार्च को सूर्यास्त के बाद 7 बजकर 33 मिनट पर लाहौर की जेल के भीतर फांसी पर लटका दिया. वे यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने तीनों शहीदों के शवों को उनके रिश्तेदारों को सौंपने की बजाय अंधेरे में चोरी-छिपे सतलज नदी के किनारे जला दिया. लेकिन कहा जाता है कि आसपास के गांव वालों को शक होने पर जब वे वहां पहुंचे तो पुलिस वहां से भाग खड़ी हुई. अगले दिन तीनों शहीदों के अधजले शवों को जब पूरे सम्मान के साथ सतलज नदी के किनारे अंतिम संस्कार किया गया, तो वहां इतनी भीड़ इकट्ठी हो गई थी, जितना लाहौर के इतिहास में आज तक नहीं हुई थी. लेकिन यहां भीड़ उग्र नहीं थी. सभी की आंखों में आंसू थे. उन्होंने आजादी के तीन युवा दीवानों को खोया था.