International Women's Day 2020: बहादुरी, शौर्य और साहस की प्रेरणा स्त्रोत, ये 10 भारतीय वीरांगनाएं!
एक ऐसी दुनिया जहां महिलाओं को ‘अबला नारी’ माना जाता हो, उसकी भूमिका रसोई की ड्योढ़ी तक सीमित रखी जाती हो, पुरुषों की अधीनस्थ मानी जाती हो, बच्चे पैदा करने की मशीन मानी जाती हो, वहां कोई महिला किसी का रोल मॉडल बनकर उभरे, यह केवल किस्सों-कहानियों में ही संभव है, लेकिन चमत्कार भी इसी दुनिया में होते हैं.
International Women's Day 2020: एक ऐसी दुनिया जहां महिलाओं (Women) को ‘अबला नारी’ माना जाता हो, उसकी भूमिका रसोई की ड्योढ़ी तक सीमित रखी जाती हो, पुरुषों की अधीनस्थ मानी जाती हो, बच्चे पैदा करने की मशीन मानी जाती हो, वहां कोई महिला किसी का रोल मॉडल बनकर उभरे, यह केवल किस्सों-कहानियों में ही संभव है, लेकिन चमत्कार भी इसी दुनिया में होते हैं. ऐसी ही दस चमत्कारी महिलाओं (Indian Women) का जिक्र हम यहां कर रहे हैं, जिसकी कहानी सुन आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे.
बहादुरी की मिसाल नीरजा भनोट
क्या 22 साल की छोटी-सी उम्र में कोई लड़की साहस और शौर्य की गाथा लिख सकती है? जी हां चंडीगढ़ में जन्मीं नीरजा भनौट ने कुछ ऐसा ही करिश्मा कर दिखाया. नीरजा दहेज-प्रथा का शिकार होकर माँ के पास रह रही थी. एकाकीपन से बचने के लिए उसने PAN-M फ्लाइट में अटेंडेंट की नौकरी ज्वाइन कर ली. 5 सितंबर 1986 को नीरजा अमेरिकी एयरवेज के विमान PAN-M-73 में 380 यात्रियों के साथ कराची हवाई अड्डे पर पायलट की प्रतीक्षा कर रही थी. अचानक आतंकी विमान में घुसकर सभी यात्रियों को गन प्वांइट पर ले लिया. घबराए यात्रियों को नीरजा ने हिम्मत बंधाया. वह बड़े धैर्य और साहस से विमान का इंधन खत्म तक आतंकियों और यात्रियों के बीच की कड़ी बनी हुई थी. जैसे विमान का ईंधन खत्म होने के बाद फ्लाइट में अंधेरा हुआ, नीरजा ने फ्लाइट का मुख्य दरवाजा खोलकर सभी को बाहर जाने का इशारा किया. यात्री विमान से बाहर कूदने लगे. लेकिन नीरजा को ऐसा करते एक आतंकी ने देख लिया. उसने नीरजा को गोलियों से छलनी कर दिया. लेकिन तब तक नीरजा 360 यात्रियों की जान बचा चुकी थी. मृत्योपरांत नीरजा को भारत सरकार का सर्वोच्च सम्मान ‘अशोक चक्र’ और पाकिस्तान ने ‘तमगा-ए-इंसानियत’ पुरस्कार से सम्मानित किया.
'वृक्ष माता' थिमक्का
कर्नाटक की रहनेवाली थिमक्का धैर्य और दृढ़ संकल्प की प्रतीक कही जा सकती हैं. उम्र के चौथे दशक तक आकर भी जब वे माँ नहीं बन सकीं तो उन्होंने खुदकुशी करने का फैसला किया. ऐसे मुश्किल समय में उन्हें पति का प्यार और सहारा मिला. पति ने उन्हें प्रकृति की माँ बनने की प्रेरणा दी. पति के सहयोग से थिमक्का ने पौधों को जन्म देने का सिलसिला शुरू किया. नन्हें पौधों को वृक्ष के रूप में पल्लवित होते देख उनके भीतर की मां को आत्मसंतुष्टि मिलती है. इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. 107 वर्षीया थिमक्का अब तक 400 से ज्यादा बरगद के वृक्ष समेत 8000 से ज्यादा वृक्ष लगा चुकी हैं. आज उन्हें दुनिया ‘वृक्ष माता’ के नाम से जानती है. थिमक्का के जीवन का एक ही ध्येय है ज्यादा से ज्यादा वृक्षारोपण कर पर्यावरण की रक्षा करना. पिछले दिनों राष्ट्रपति भवन में उन्हें पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसके अलावा भी उन्हें इस पावन कार्य के लिए कई सरकारी और गैरसरकारी अवॉर्ड्स मिल चुके हैं. यह भी पढ़ें: International Women's Day 2020 Messages: इन प्यार भरे हिंदी WhatsApp Stickers, Shayaris, Quotes, Facebook Greetings, GIF Wishes, Wallpapers, SMS के जरिए अपनी खास लेडी से कहें हैप्पी इंटरनेशनल वुमन्स डे
वीरांगना मातंगिनी हजरा
मातंगिनी का जन्म पूर्वी बंगाल (बांग्लादेश) मिदनापुर में गरीब परिवार में हुआ था. 12 वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह 62 वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया. 6 वर्ष बाद पति की मृत्यु हो गयी. उन्हें ससुराल से निकाल दिया गया. वे समाज सेवा में व्यस्त हो गयीं. 1932 में वह स्वाधीनता आन्दोलन शामिल हो गयीं. 17 जनवरी, 1933 को ‘करबन्दी आन्दोलन’ में बंगाल के गर्वनर एण्डरसन को काला झंडा दिखाने के आरोप में उन्हें मुर्शीदाबाद जेल भेजा गया. 'नमक सत्याग्रह' आंदोलन में उन्हें गिरफ्तार किया गया, मगर वृद्ध होने के कारण छोड़ दिया गया. 29 सितंबर, 1942 को 'भारत छोड़ो आन्दोलन' के समय कचहरी और पुलिस लाइन पर क़ब्ज़ा करने के लिए जुलूस निकला तो वृद्ध होने के कारण मातंगिनी को पीछे रखा गया था, किंतु जैसे ही सैनिकों ने बन्दूकें निकालीं, मातंगिनी आगे आ गईं. सैनिकों ने उन्हें पैरों पर गोली मारी, मगर वे तिरंगा लेकर आगे बढ़ती रहीं, उन पर गोलियां बरसती रहीं, मगर वे तिरंगा लिये वंदे मातरम के उद्घोष के साथ आगे बढ़ती रहीं. अंततः सैनिकों ने उनके सीने को गोलियों से बेंध दिया. वे वंदे मातरम् कहते हुए शहीद हो गयीं.
‘महाराष्ट्र की आई’ सिंधुताई
सिंधुताई महाराष्ट्र में ‘आई’ (माँ) के नाम से लोकप्रिय हैं. यह एक भिखारन से हजारों अनाथ बच्चों की पालनकर्ता बनने वाली युवती की कहानी है. 10 साल की उम्र में शादी और 20 वर्ष की होते-होते तीन बच्चों की मां बन गईं. एक बार गांव की मुखिया से झड़प हुई. पति ने मुखिया का साथ देते हुए गर्भवती सिंधु को घर से निकाल दिया. वह तबेले में बेटी को जन्म देती हैं. दिन में स्टेशनों पर भीख मांगती और रात श्मशान में गुजारती. बेटी की परवरिश करते हुए उन्हें आसपास भीख मांगते बच्चों की सुधि आई. उन्हें जो बच्चा भीख मांगता मिलता, उसे घर लातीं. पहले भीख मांगकर फिर प्रवचन सुनाकर सिंधु चंदा एकत्र करतीं थीं, जिससे बच्चों की परवरिश होती. वे माई के नाम से मशहूर हो गयीं. वे हर बच्चों को शिक्षा दिलातीं, ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें. उनके बच्चों में कोई डॉक्टर, कोई इंजीनियर तो कोई सीए पदों पर कार्यरत हैं. आज महाराष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में सिंधुताई के चार आश्रम चल रहे हैं. अब तक वह 1050 अनाथ बच्चों को गोद ले चुकी हैं. उनके विशाल परिवार में 207 दामाद, 36 बहुएं और एक हजार से ज्यादा नाती-पोते हैं. सिंधुताई को कुल 273 राष्ट्रीय और आंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं. उन्हें जो नकद पुरस्कार मिलता है, उसे बच्चों की परवरिश पर खर्च करती है.
सरला ठकरालः एयर क्राफ्ट उड़ाने वाली पहली भारतीय महिला
आज हर क्षेत्र में महिलाएं आगे चल रही हैं. 70-80 साल पहले ऐसी स्थिति नहीं थी. उस दौर में अगर किसी महिला द्वारा आकाश में प्लेन उड़ाने की खबर मिले तो कोई भी इस पर विश्वास नहीं करेगा. लेकिन दिल्ली में जन्मीं सरला ने इसे सच साबित कर दिखाया. सरला ने छोटी उम्र में फ्लाइंग क्लब में विमान चालन का प्रशिक्षण लिया. इसी दरम्यान उनकी शादी हो गयी. पति का प्रोत्साहन पाकर 21 वर्षीया सरला ने 1936 में लाहौर हवाई अड्डे पर जिप्सी मॉथ नामक दो सीटर एयरक्राफ्ट विमान उड़ाने वाली भारत की पहली महिला बनीं. उनका अगला लक्ष्य कमर्शियल पायलेट बनने का था, जिसके लिए वे कड़ी मेहनत कर रही थीं, लेकिन यहीं से उनके जीवन में दुर्भाग्य ने कदम रखा. एक तरफ सेकेंड वर्ल्ड वॉर के कारण उन्हें ट्रेनिंग बीच में रोकनी पड़ी, वहीं एक विमान दुर्घटना में उनके पति की मृत्यु हो गयी. इसके बाद वे भारत आ गयीं. 15 मार्च 2008 को उनका निधन हो गया.
शकुन्तला देवीः जिसकी गणित देख दुनिया हैरान रह जाती थी
बंगलुरू में जन्मीं शकुन्तला देवी के पिता सर्कस में जादु दिखाते थे. 3 साल की उम्र में पिता के साथ ताश खेलते हुए उसकी विलक्षण प्रतिभा का अहसास हुआ. 6 वर्ष की आयु में उसने मैसूर विश्वविद्यालय में गणित प्रतियोगिता में अपनी प्रतिभा से सबको हैरान कर दिया. हैरानी की बात यह थी कि वह प्रशिक्षण लिए बिना गणित संकाय के बड़े-बड़े दिग्गजों को चुनौती दे रही थी. 1950 में अंकगणितीय प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए यूरोप गयीं. 1976 में न्यूयॉर्क में आमंत्रित किया गया. 1988 में कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में मनोविज्ञान के प्रोफेसर आर्थर जेन्सेन द्वारा शकुन्तला की क्षमताओं का अध्ययन किया गया. 1977 में उन्होंने साउथर्न मेथोडिस्ट विश्वविद्यालय में 50 सेकंड में 201 अंकों की संख्या को हल कर 23 वर्गमूल उत्तर निकाला. 18 जून 1980 को, उन्होंने दो 13 अंकों की संख्या-7,686,369,774,870 × 2,465,099,745,779 से गुणा किया. 28 सेकेंड में निकले उसके जवाब को इंपीरियल कॉलेज, लंदन के कंप्यूटर से मिलान किया गया. इसे 1982 में गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज किया गया. 21 अप्रैल 2013 को, वह सांस व किडनी की गंभीर बीमारी से ग्रस्त हो गई, जिससे उनका देहांत हो गया.
टेसी थॉमसः भारत की ‘मिसाइल महिला’
1964 में केरल के एक कैथोलिक परिवार में जन्मीं डॉ. टेसी थॉमस स्कूली दिनों से मिसाइल बनाने के सपने देखती थीं. इसे ही लक्ष्य मानकर टेसी ने 20 साल की उम्र में कालीकट (केरल) के त्रिचुर इंजीनियरिंग कॉलेज से पहले बीटेक किया, फिर गाइडेड मिसाइल से एमटेक किया. फिर पुणे आकर डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस टेक्नोलॉजी से पढ़ाई किया और डीआरडीओ से जुड़ गईं.
आगे चलकर टेसी ने भारत के कई अंतरिक्ष प्रोजेक्ट्स की सफलता में महत्वपूर्ण योगदान दिया. भारत की 3500 किमी तक की मारक क्षमता वाली अग्नि- 4 मिसाइल के सफल परीक्षण के बाद से ही उन्हें ‘अग्नि पुत्री’ नाम पुकारा जाने लगा. टेसी ने प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में अग्नि-5 की स्ट्राइक रेंज 5,000 किमी की मिसाइल का सफल परीक्षण किया. ऐसा करने वाली वे पहली भारतीय महिला हैं. आज भारत विश्व का पांचवां देश बन चुका है, जिसका इंटर कॉन्टिनेंटल मिसाइल सिस्टम की क्षमता से लैस मिसाइल को 5 हजार किमी दूर लक्ष्य करके उसके घर में ही ढेर कर सकता है. इसका सारा श्रेय डॉ. टेसी थॉमस को जाता है.
सावित्रीबाई फुले: देश की पहली महिला प्रिसिंपल
सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के एक दलित परिवार में हुआ था. नौ साल की उम्र में उनकी शादी 13 वर्षीय क्रांतिकारी ज्योतिबा फुले हो गयी. तब तक वे स्कूल नहीं गयी थीं. पति के सानिध्य में उन्होंने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई पूरी की. समाज सेवा करते हुए उन्हें शिक्षा की अहमियत समझ में आई. पति से सलाह-मशविरा कर उन्होंने 3 जनवरी,1848 को अलग-अलग जातियों के नौ बच्चों को लेकर स्कूल की शुरुआत की. ये मुहिम सफल हुई तो अगले एक साल के अंदर अलग-अलग स्थानो पर सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबाफुले ने पांच स्कूल खोले, जो समाज उस वक्त लड़कियों को घर में रहने के लिए मजबूर करता था, उस समाज के लिए सावित्रीबाई की मुहिम एक तमाचा थी. 10 मार्च 1897 को प्लेग द्वारा ग्रसित मरीज़ों की सेवा करते वक्त सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया. यह भी पढ़ें: Women's Day 2020 Wishes: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर इन शानदार हिंदी WhatsApp Messages, Shayaris, Quotes, Facebook Greetings, SMS, GIF Images और Wallpapers के जरिए महिलाओं को दें शुभकामनाएं
मेरी कॉमः भारत की पहली ओलंपिक पदक जीतने वाली महिला
मेरी को बचपन से एथलीट बनने का शौक था. 1998 में मणिपुर के ही बॉक्सर ‘डिंगको सिंह’ ने एशियन गेम्स में गोल्ड मैडल जीता. यहीं से मेरी ने बॉक्सिंग को करियर बनाने की ठान ली. उन्हें पता था कि उनका परिवार बॉक्सिंग में करियर बनाने की बात कभी नहीं मानेगा. वे 1998 से 2000 तक घर में बिना बताये ट्रेनिंग लेती रहीं. 2000 में जब मेरी ने ‘वीमेन बॉक्सिंग चैम्पियनशीप, मणिपुर’ में जीत हासिल की, और इन्हें बॉक्सर का अवार्ड मिला, तो समाचार पत्रों में उनकी जीत की खबर से परिवार को उनके बॉक्सर होने का पता चला. इसके बाद घर वालों ने भी जीत को सेलिब्रेट किया. इसके बाद मेरी ने पश्चिम बंगाल में आयोजित ‘वीमेन बॉक्सिंग चैम्पियनशीप’ में गोल्ड मैडल जीत, अपने राज्य का नाम ऊँचा किया. मेरी अकेली भारतीय महिला बॉक्सर हैं, जिन्होंने 2012 ओलंपिक में कांस्य पदक हासिल किया. वे 5 बार वर्ल्ड बॉक्सर चैम्पियनशीप जीत चुकी हैं.
स्पेशल: भारत की पहली महिला डॉक्टर आनंदी गोपाल जोशी
डॉ. आनंदी गोपाल जोशी (यमुना) की कहानी काफी संवेदनशील है. उन दिनों लड़कियों को शिक्षा के बजाय शादी कर दिया जाता था. 9 वर्ष की उम्र में उनकी भी शादी 29 वर्षीय विधुर गोपालराव जोशी से हो गई. गोपालराव स्त्री-शिक्षा के समर्थक थे. उन्होंने आनंदी को पढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास किया. उन दिनों महिला डॉक्टर की कोई कल्पना नहीं कर सकता था. 14 साल की उम्र में आनंदी एक बेटे की मां बनीं. लेकिन मेडिकल सुविधाओं के अभाव में बच्चा कुछ समय बाद ही चल बसा. आनंदी को गहरा सदमा लगा. उन्होंने डॉक्टर बनने की ठान ली. 16 साल की उम्र में पति के प्रयासों से वह अमेरिका की पेन्सिलवेनिया वूमेंस मेडिकल कॉलेज में मेडिकल की पढ़ाई करने पहुंचीं. 1886 में देश की पहली महिला डॉक्टर बनकर भारत लौटीं. उस समय वे मात्र 19 साल थीं. आनंदी का सपना महिलाओं के लिए एक मेडिकल कॉलेज शुरू करने का था, लेकिन विधि को कुछ और मंजूर था. भारत आने के बाद से ही उनकी सेहत खराब रहने लगी. अंततः देश की पहली महिला डॉक्टर टीबी का शिकार होकर 26 फ़रवरी, 1887 को 22 साल की उम्र में चल बसीं.