Chaitanya Mahaprabhu jayanti 2019: संत ही नहीं, साहित्यकार और सद्भावना के भी प्रतीक थे चैतन्य महाप्रभु

संत समाज में चैतन्य प्रभु की गिनती भक्तिकाल के प्रमुख संतों में होती है. उन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की नींव रखी थी. भजन गायकी की एक नई शैली को जन्म देनेवाले चैतन्य प्रभु ने सदा हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को एक सूत्र में बांधने की कोशिश की.

चैतन्य महाप्रभु जयंती 2019 (Photo Credits: Facebook)

Chaitanya Mahaprabhu jayanti 2019: संत समाज में चैतन्य प्रभु  (Chaitanya Mahaprabhu) की गिनती भक्तिकाल के प्रमुख संतों में होती है. उन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की नींव रखी थी. भजन (Bhajans) गायकी की एक नई शैली को जन्म देनेवाले चैतन्य प्रभु ने सदा हिंदू-मुस्लिम एकता (Hindu-Muslim Unity) की सद्भावना को एक सूत्र में बांधने की कोशिश की. उनके कीर्तनों में हिंदू ही नहीं मुस्लिम श्रोता भी उपस्थित होते थे. ब्राह्मण परिवार के होते हुए भी उनके उपदेशों में जात-पात और ऊंच-नीच की भावना से दूर मिलजुल कर रहने की बातें होती थी. चैतन्य उच्च कोटि के साहित्यकार भी थे. 24 साल की उम्र में सांसारिक दुनिया को छोड़ उन्होंने संन्यास धारण कर लिया था. इसके बाद का जीवन उन्होंने भक्ति और प्रेम के संदेश के प्रसार में व्यतीत किया.

चैतन्य प्रभु का जन्म 18 फरवरी 1486 (संवत 1542 विक्रमी की फाल्गुनी पूर्णिमा) के दिन बंगाल के नवद्वीप नगर में एक ब्राह्मण के घर हुआ था. इनके माता पिता क्रमश पं. जगन्नाथ मिश्र और मां शचीदेवी आध्यात्मिक प्रवृत्ति की थीं. शचीदेवी की 8 पुत्रियां पैदा हुईं, लेकिन सभी की शैशवकाल में ही मृत्यु हो गयी. इसके बाद उनके दो बेटे विश्वरूप और विश्वंभर पैदा हुए. विश्वंभर को सभी प्यार से निमाई पुकारते थे.

निमाई की वह बाल सुलभ चंचलता थी या कुछ और

निमाई बचपन से ही चंचल स्वभाव के थे. उन दिनों रंग-वर्ण, छुआछूत आदि के भेदभाव चरम पर थे. घर से बाहर रहने पर ब्राह्मण अपने हाथ का बना ही भोजन करते थे. एक दिन जगन्नाथ मिश्र के घर एक ब्राह्मण आया. शचि देवी ने उनकी आवभगत करने के पश्चात उन्हें सीधा दिया. ब्राह्मण ने एक जगह साफ-सफाई कर खाना बनाया. खाना बनने के बाद ब्राह्मण आंख बंदकर विष्णुजी को भोग लगा रहे थे, तभी निमाई भोग की थाली में रखा भोजन उठाकर खाने लगे. यह देख ब्राह्मण क्रोधित हो उठे. उनकी चीख सुनकर मिश्र जी और शचि देवी ब्राह्मण के पास आये. निमाई की हरकतें सुन उन्होंने निमाई की पिटाई करनी चाही तो ब्राह्मण ने उन्हें रोकते हुए कहा कोई बात नहीं वह दुबारा खाना बना लेंगे. यह भी पढ़ें: हर मंगलवार-शनिवार को हनुमान चालीसा का पाठ करना चमत्‍कारी है और सेहत के लिए लाभकारी भी

इस बार निमाई को एक रस्सी से बांध दिया गया. लेकिन भोग के समय निमाई ने पुनः खाना जूठा कर दिया. मिश्र जी ने हाथ जोड़ते हुए एक बार और निमाई के लिए माफी मांगी और पुनः सीधा देकर खाना बनाने का अनुग्रह किया. चूंकि मिश्र जी स्वयं भी ब्राह्मण थे, लिहाजा ब्राह्मण ने एक बार पुनः निमाई को माफ करते हुए तीसरी बार खाना बनाया, इस बार मां ने निमाई के हाथ-पैर बांधकर अपने पास रखा. उधर ब्राह्मण ने पुनः विष्णुजी की प्रतिमा के सामने भोजन का थाली रखकर उनका आह्वान किया. इस बार विष्णु जी ब्राह्मण के सामने अपने चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए और बताया, -तुम्हारे आह्वान पर मैं दो बार बालकरूप में आया, पर तुम मुझे पहचान नहीं सके. अब तुम जो मांगना हो मांग लो. ब्राह्मण ने कहा, मुझे यह वर दीजिये कि आपकी मूरत सदा मेरे ह्रदय में बसी रहे. विष्णु जी ने तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गये. इसके बाद ब्राह्मण निमाई को देखने गये तो वह वहां सोते हुए मिले. ब्राह्मण ने उन्हें प्रणाम किया औऱ अपने घर लौट आये.

24 वर्ष की आयु में बन गये संन्यासी

सन 1509 में जब वे अपने माता-पिता का श्राद्ध करने बिहार के गया शहर गये थे, तो वहीं उनकी मुलाकात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई. संत ने निमाई से कृष्ण कृष्ण रटने को कहा. कृष्ण शब्द ने उनके मनोमस्तिष्क को इतना प्रभावित किया कि इसके बाद से उनके जीवन का नजरिया ही बदल गया. और 24 वर्ष की आयु में उन्हें घर-बार से विरक्ति हो गयी. वह घर छोड़कर कृष्ण की भक्ति में लीन रहते हुए वृंदावन प्रस्थान कर गये. चैतन्य के अनुयायी तो उन्हें श्रीकृष्ण का अवतार भी मानते हैं.

जब वेश्याओं के बीच घिरे चैतन्य

एक बार चैतन्य एक तीर्थ स्थल पर पहुंचकर कुछ दिनों के ले एक शिव मंदिर में रुक गये. दो-एक दिन बाद वहां तीर्थराम नामक एक विलासी युवा आया. उसके साथ लक्ष्मीबाई और सत्याबाई नामक दो वेश्याएं भी थीं. वह युवक चैतन्य के बारे में काफी कुछ जानता था. उसने उनकी परीक्षा लेने की सोच के साथ दोनों वेश्याओं को उनके पास भेजा. उस समय चैतन्य गहरी निद्रा में थे. दोनों वेश्याएं उनके पास जाकर बैठ गयीं. थोड़ी देर बाद जब चैतन्य की नींद टूटी तो उनकी नजर दोनों वेश्याओं पर पड़ी. चैतन्य ने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, माता जी, आप यहां कैसे पधारीं. मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूं. चैतन्य के इस भाव से दोनों वेश्याएं लज्जित होकर उनकी चरणों में गिरकर माफी मांगने लगीं. उसी समय तीर्थराम भी वहां आ गया. चैतन्य के उपदेश से वह विलासी युवक शुद्ध वैष्णव बन गया. इस तरह चैतन्य जहां भी गये, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब, हिंदू-मुस्लिम के बीच अपनी अटूट छाप छोड़ने में सफल रहे. यह भी पढ़ें: March 2019 Calendar and Festival List: मार्च महीने में पड़ रहे हैं कई बड़े व्रत और त्योहार, जानिए किस दिन मनाया जाएगा कौन सा पर्व

दुनिया से महाप्रयाण का पूर्व एहसास

14 जून 1534 (सम्वत 1560 विक्रमी) में जब वह उड़ीसा के पुरी थे. कहा जाता है कि लगातार लोकसेवा करते हुए वह काफी कमजोर हो गये थे. उन्हें लगा कि अब उनके महाप्रयाण का समय आ गया है. वह हरि कथा सुनाते-सुनाते उठे और भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा के सामने प्रार्थना करते हुए अपने प्राण त्याग दिए.

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