Apara Ekadashi 2020: हिन्दू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ माह में कृष्णपक्ष के दिन अपरा एकादशी (Apara Ekadashi) के व्रत एवं पूजा-अर्चना का विधान है. इसे ‘अचला एकादशी' (Achala Ekadashi) भी कहते हैं. यूं तो साल में 24 एकादशियां होती हैं, और सभी एकादशियों का महत्व होता है, लेकिन ज्योतिषियों के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल एवं कृष्णपक्ष में पड़ने वाली एकादशियों का खास महत्व होता है. आइये जानें अपरा एकादशी व्रत, पूजा, मुहूर्त एवं कथा के संदर्भ में.
अपरा (अचला) एकादशी का महत्व
सनातन धर्म में इस एकादशी का बहुत महत्व है. मान्यता है कि इस दिन उपवास रखने से श्रीहरि और मां लक्ष्मी का आशीर्वाद प्राप्त होता है, एवं मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं. ऐसा भी कहा जाता है कि मकर संक्रांति के समय गंगा-स्नान, सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र और शिवरात्रि के समय काशी में गंगा-स्नान करने से जो पुण्य मिलता है, वही पुण्य अपरा एकादशी का व्रत-पूजा करके प्राप्त होता है. इस साल यह तिथि 18 मई (सोमवार) को पड़ रही है.
ऐसे करें पूजा-अर्चना
अपरा एकादशी से एक दिन पूर्व दशमी को सूर्यास्त के बाद से ही भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए. एकादशी को सूर्योदय से पूर्व स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें और श्रीविष्णु का ध्यान करें. घर के मंदिर के सामने पूर्व दिशा की तरफ एक स्वच्छ चौकी पर पीला आसन बिछाकर उस पर श्रीहरि और माता लक्ष्मी की प्रतिमा या फोटो स्थापित करें, और अपने लिए भी पीला आसन बिछाकर उस पर बैठ जाएं. श्री हरि की प्रतिमा के सामने धूप-दीप जलाकर कलश स्थापित करें.
भगवान विष्णु को अपने सामर्थ्य के अनुसार तुलसी, चंदन, फल-फूल, पान, सुपारी, आकर्षण, नारियल, लौंग आदि अर्पण करें. पूजा करते समय श्री विष्णु जी का मंत्र ‘ओम नमो: भगवते वासुदेवाय' का जप अवश्य करें. एकादशी का व्रत रखने वाले को रात्रि जागरण करते हुए भगवान विष्णु का कीर्तन भजन एवं श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का पाठ करना चाहिए. अगले दिन द्वादशी को शुभ मुहूर्त में पारण कर दान-पुण्य करना चाहिए. यह भी पढ़ें: Mohini Ekadashi 2020: मोहिनी एकादशी का व्रत करने पर किन नियमों का करें पालन, जानें तिथि, शुभ मुहूर्त और पौराणिक महत्व
शुभ मुहूर्त
एकादशी प्रारंभ: 17 मई दोपहर 12.44 बजे से
एकादशी समाप्त: 18 मई दोपहर 03.08 बजे तक
पारण मुहूर्त: 19 मई प्रातः 05.27 बजे से दिन 08.11 बजे तक
पारंपरिक व्रत कथा
प्राचीन काल में महीध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था. उसका छोटा भाई वज्रध्वज बड़े भाई की लोकप्रियता से द्वेष रखता था. एक दिन इसी द्वेष के कारण अवसर पाते ही उसने महीध्वज की हत्या कर जंगल में एक पीपल के नीचे महीध्वज के मृत देह को दफना दिया. अकाल मृत्यु के कारण राजा की आत्मा प्रेत बनकर पीपल के वृक्ष पर रहने लगी. महीध्वज की आत्मा उस मार्ग पर आने जाने वाले को परेशान करती थी. एक दिन उसी रास्ते से एक ऋषि गुजर रहे थे. उन्होंने अपने तपोबल से महीध्वज की प्रेत को देखा, और उससे प्रेत बनने का कारण पूछा.
ऋषि ने महीध्वज की आत्मा को पेड़ से नीचे उतारा और परलोक विद्या का उपदेश दिया, और महीध्वज को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने के लिए स्वयं अपरा एकादशी का व्रत रखा और द्वादशी के दिन व्रत पूरा होने पर व्रत का पुण्य प्रेत को दे दिया. अपरा एकादशी व्रत का पुण्य प्राप्त करके महीध्वज प्रेत योनि से मुक्त होकर बैकुंठधाम गया चला गया।