हिंदू धर्म में बैकुंठ चतुर्दशी का विशेष महत्व है. यह तिथि कार्तिक मास शुक्लपक्ष की चतुर्दशी के दिन पड़ती है. इस बार यह तिथि 17 नवंबर बुधवार 2021 को मनाई जायेगी. मान्यता है कि बैकुण्ठ चतुर्दशी को व्रत एवं पूजा करने से जातक की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं, और मृत्योपरांत उसे बैकुण्ठधाम की प्राप्ति होती है. आइये जानें इस व्रत का महात्म्य एवं पूजा विधि क्या है.
भगवान शिव एवं श्रीहरि की संयुक्त पूजा का विधान!
इस वर्ष यद्यपि 17 नवंबर की प्रातः 09.50 बजे से वैकुण्ठ चतुर्दशी की तिथि शुरु होगी, लेकिन इसका व्रत 18 नवंबर यानी गुरुवार को रखा जायेगा, चूंकि गुरुवार भगवान विष्णु को समर्पित दिन माना गया है, इसलिए गुरुवार के दिन वैकुण्ठ चतुर्दशी होने से इसका महात्म्य कई गुना बढ़ जाता है. मान्यतानुसार इसी दिन भगवान शिव ने श्रीहरि को सुदर्शन चक्र प्रदान किया था, और इसी दिन शिवजी एवं श्रीहरि एकाकार होते हैं, इसीलिए इस दिन श्रीहरि के साथ भगवान शिवजी की संयुक्त रूप से पूजा एवं व्रत किया जाता है. ऐसा करने से जातक की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और अंततः वह मोक्ष को प्राप्त करता है. मान्यतानुसार महाभारत युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए शूरवीरों का श्राद्ध भगवान श्रीकृष्ण ने वैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन ही कराया था, इसलिए हिंदू समाज इस दिन श्राद्ध एवं तर्पण भी अवश्य करते हैं.
उज्जैन एवं काशी में दिव्य आयोजन!
वैकुण्ठ चतुर्दशी की पूजा एवं भव्य आयोजन शिव की प्रिय नगरी काशी एवं उज्जैन में बहुत भव्य तरीके से मनाया जाता है. इन शहरों में भगवान शिव एवं श्रीहरि की सवारी पूरे नगर में परिक्रमा करती है, जिसकी पूर्णता काशी में बाबा विश्वनाथ मंदिर और उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर पर होती है. इस दिन सूर्यास्त के पश्चात रात्रि में भगवान शिवजी एवं भगवान विष्णु के मिलन के उत्सव को दीवाली की तरह सेलीब्रेट किया जाता है. भगवान शिव एवं श्रीहरि के उपासक भगवान को दीप दान करते हैं, जो नगर को दिव्य बना देता है.
महाराष्ट्र में शिवाजी और जिजामाता ने की थी पहल!
वैकुण्ठ चतुर्दशी का यह पर्व महाराष्ट्र में भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. कहते हैं कि महाराष्ट्र में वैकुण्ठ चतुर्दशी मनाने की शुरुआत छत्रपति शिवाजी महाराज एवं उनकी माता जिजाबाई ने की थी. इनके साथ भारी तादाद में गौड़ सारस्वत ब्राह्मण समाज ने भी इस पर्व को मिलकर सेलीब्रेट किया था, इसके बाद से ही यह पर्व पूरे महाराष्ट्र में परंपरागत तरीके से मनाया जाता है. यह भी पढ़ें : Marriage Muhurat 2021-22: शुरू हुए विवाह के शुभ मुहूर्त! लेकिन केवल 13 तिथियां हैं इस वर्ष! चुनें अपनी सुविधानुसार तिथियां!
क्यों मनाते हैं वैकुण्ठ चतुर्दशी का पर्व!
हिंदू धर्मानुसार प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी के दिन इस पर्व को मनाया जाता है. मान्यतानुसार भगवान श्रीहरि की उपस्थिति में वे स्वयं ही संपूर्ण संसार में सारे मांगलिक कार्य सम्पन्न करवाते हैं. लेकिन चार मास के लिए जब वे योग-निद्रा में जाते हैं तो इन चार माह तक किसी भी तरह के मांगलिक कार्य सम्पन्न नहीं होते. इस चातुर्मास काल में श्रीहरि की जगह भगवान शिव स्वयं जगत का संचालन करते हैं, और जब श्रीहरि योग निद्रा से बाहर आते हैं, तो जिस दिन भगवान शिव उन्हें जगत का सारा कार्यभार सौंप कर कैलाश जाते हैं, इसी दिन को वैकुण्ठ चतुर्दशी कहते हैं.
ऐसे मनाते हैं बैकुण्ठ चतुर्दशी
इस दिन गया (बिहार) स्थित ‘विष्णुपद मंदिर’ में वैकुण्ठ चतुर्दशी को वार्षिक महोत्सव के रूप में मनाया जाता है. पूरे मंदिर को दीपों से सजाया जाता है. मान्यता है कि यहां श्रीहरि के पदचिह्न मौजूद हैं. श्रद्धालु इस दिन स्नान-दान करते है. ऋषिकेश (उत्तराखंड) में गंगा तट पर भारी संख्या में दीप-दान होता है. दीपों से गंगा दमक उठती हैं. यह इस बात का प्रतीक है कि श्रीहरि अपनी योग निंद्रा से जाग चुके हैं, और इसी ख़ुशी में सर्वत्र दीप-दान होता है. इस दिन की एक अनूठी मान्यता यह भी है कि इस दिन शिवजी श्रीहरि को बेल-पत्र चढ़ाते हैं, तो श्रीहरि भगवान शिव को तुलसी की पत्ती चढ़ाते हैं.












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