भारतीय इतिहास के पन्ने तमाम वीरांगनाओं की कहानियों से भरी पड़ी हैं, जिनकी शौर्य गाथाएं आज भी बच्चों-बच्चों की जुबान पर हैं. लेकिन ऐसी कम ही वीरांगनाएं हैं, जो शौर्य से लेकर महिला सशक्तिकरण और समाज उत्थान के कार्यों के लिए दुनिया भर में विख्यात हैं. इन्हीं में एक हैं मालवा की महारानी अहिल्याबाई होल्कर. छोटी उम्र में शादी और थोड़े अंतराल में वैधव्य धारण करने के बाद अहिल्याबाई ने परंपरानुसार पति के साथ सती होने का फैसला कर लिया था, मगर वृद्ध ससुर के समझाने पर अहिल्याबाई एक ऐसी महिला के रूप में विख्यात हुईं, जिसके किस्से आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. 31 मई को अहिल्याबाई की 297 वीं जयंती पर प्रस्तुत है उनके जीवन के कुछ अनछुए किस्से...
मराठा परिवार से होलकर राजघराने तक
अहिल्याबाई शिंदे का जन्म 31 मई 1725 में अहमदनगर (महाराष्ट्र) स्थित जामखेड़ के चोंडी नामक गांव में हुआ था. पिता जनकोजी राव शिंदे ने समाज की धारा के विपरीत अहिल्याबाई को शिक्षा दिलाने का फैसला किया. एक दिन 8 वर्षीया अहिल्याबाई जब गरीबों बच्चों को खाना खिला रही थीं, मालवा के पेशवा मल्हार राव एक सीधी सादी मगर ओजस्वी सी दिखने वाली अहिल्या के सेवाभाव से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने मानकोजी शिंदे से अपने बेटे खांडेराव की पुत्रवधू के रूप में अहिल्याबाई की मांग की. अहिल्याबाई के लिए पिता शिंदे ने कभी इतने अच्छे वर की कल्पना भी नहीं की थी. अहिल्याबाई उस छोटी सी उम्र में दुल्हन बनकर मराठा परिवार से होल्कर राजघराने पहुंच गईं.
कहानीः वैधव्य से सती होने तक
लेकिन अहिल्याबाई के भाग्य में ज्यादा समय तक सुहागन होना नहीं लिखा था. वह जब 29 वर्ष की थीं पति खांडेराव की कुंभेर के युद्ध में मृत्यु हो गई. उन दिनों प्रचलित प्रथा के अनुसार अहिल्याबाई होलकर ने भी पति खांडे राव के मृत शरीर के साथ सती होने का फैसला कर लिया. सारी तैयारियों के बाद इसके पहले की अहिल्याबाई पति के साथ चिता पर लेटती स्वसुर मल्हार राव ने अपने वृद्धावस्था का वास्ता देते हुए राजघराने परिवार की जिम्मेदारी और राज्य की बागडोर संभालने की प्रार्थना की. उस समय मालवा की राजनीतिक माहौल को देखने हुए महारानी अहिल्याबाई होल्कर पिता समान ससुर की बात मान कर सती होने का फैसला स्थगित कर दिया.
महारानी की कूटनीति! बिना रक्त बहाये जीत हासिल की!
साल 1766 में स्वसुर मल्हार राव के निधन के बाद उनके बेटे मालेराव की भी मृत्यु हो गई. अहिल्याबाई होल्कर के राजनीतिक कार्यों को देखते हुए उन्हें मालवा की महारानी घोषित कर सिंहासन पर बैठाया गया. पुरुष प्रधान समाज में एक महिला को सिंहासन पर बैठे देखना कुछ शासकों को रास नहीं आया. उन्होंने साम-दाम-दंड-भेद किसी भी तरीके से मालवा पर कब्जा करने के जोड़-तोड़ में लग गए. एक दिन अहिल्याबाई को कमजोर मानते हुए पेशवा राघोबा ने एक विशाल सेना के साथ इंदौर पहुंच गये और महारानी अहिल्याबाई को आत्मसमर्पण नहीं तो युद्ध का संदेश भेजा. हालात को देखते हुए महारानी ने अपने सेनापति को एक संदेश लिखकर भेजा, आत्मसमर्पण नहीं हम युद्ध करेंगे. आप अपनी सेना के साथ आइये, यहां खड्ग और तलवार के साथ आपको महिलाओं की बड़ी सेना से सामना करना होगा, लेकिन सोच लीजिये, आप जीते तो महिलाओं से लड़कर जीतने से आपके पुरुषत्व को कलंक लगेगा और आप हारे तो स्त्रियों से हारने का कलंक लगेगा. आप फैसला कर लीजिये. कहते हैं संदेश पढ़ते ही पेशवा अपनी विशाल सेना के साथ वापस चला गया.
शौर्य के साथ-साथ सामाजिक विकास में रुचि
साल 1766 में महारानी अहिल्याबाई ने सत्ता संभाली. उन्होंने कई युद्ध का नेतृत्व किया. वह साहसी योद्धा, और बेहतरीन तीरंदाज थीं. हाथी पर सवार होकर लड़ती तो शत्रु उनकी पहुंच में आने से घबराते थे. अपनी शूरवीरता से उन्होंने बरसों तक राज्य को सुरक्षित रखा. इसके साथ ही उन्होंने सामाजिक विकास के भी कई कार्य किये. सरकारी पैसों से कई किले, विश्राम-गृह, कुएं और सड़कें बनवाई. गरीबों एवं जरूरतमंदों दान करतीं. उन्होंने देश के कई मंदिरों अयोध्या, सोमनाथ, जगन्नाथ पुरी आदि का जीर्णोद्धार भी करवाया. एक महिला होने के नाते उन्होंने विधवाओं को पति की संपत्ति पाने और बेटे को गोद लेने की प्रथा को मजबूती प्रदान की. आज मिनी बॉम्बे कहा जानेवाला इंदौर कभी छोटा-सा गांव होता था, इंदौर के विकास में महारानी अहिल्याबाई के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. अहिल्याबाई होल्कर का विस्मृति कर देने वाले शासन का अंत 13 August 1795 में उनकी मृत्यु के साथ हुआ.