पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के निधन से लोकसभा में शून्य हुआ 'यादव परिवार'
मुलायम सिंह यादव (Photo Credits : PTI)

लखनऊ, 15 अक्टूबर : समाजवादी पार्टी के संस्थापक और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के निधन से देश का सबसे बड़ा सियासी कुनबा लोकसभा से शून्य हो चुका है. कभी लोकसभा में मुलायम परिवार के आधे दर्जन सदस्य हुआ करते थे, लेकिन अब उनके निधन के बाद अब लोकसभा में इस परिवार का कोई सदस्य नहीं बचा है. इस बार के लोकसभा में सपा मुखिया अखिलेश यादव भी चुने गए थे. लेकिन कुछ माह पहले उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था.

2019 के लोकसभा चुनाव में मुलायम परिवार से दो सदस्य ही सदन पहुंचे थे. इसमें एक मुलायम स्वयं मैनपुरी चुने गए थे. दूसरे अखिलेश यादव आजमगढ़ से चुने गए थे. बाद में 2022 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने इस्तीफा दे दिया था. वह वर्तमान में यूपी विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं. कई दशक बाद ऐसा मौका आया है, जब लोकसभा मुलायम परिवार विहीन हो गया है.मैनपुरी में मुलायम सिंह यादव की सियासत ऐसी थी कि 1989 से आज तक लोकसभा चुनाव में कोई भी मुलायम या उनके चुने हुए प्रत्याशी को शिकस्त नहीं दे सका. 1996 में मैनपुरी से ही जीतकर मुलायम सिंह यादव केंद्र सरकार में रक्षामंत्री भी बने. 2019 में आखिरी बार खुद नेताजी ने मैनपुरी सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता. वर्तमान में वह मैनपुरी सीट से सांसद थे.

मुलायम सिंह यादव ने मैनपुरी सीट पर 1996, 2004, 2009, 2014 और 2019 तक सासंद रहे. 1996 में पहली बार लोकसभा चुनाव में जीत हासिल पहली बार केंद्र में मंत्री भी बने. लेकिन साल 1998 में लोकसभा विघटित कर दी गई. साल 1998 से 1999 के लिए वो संभल से लोकसभा के लिए चुने गए. सांसद के तौर पर ये उनका दूसरा कार्यकाल था. लोकसभा विघटित कर दी गई. मुलायम सिंह यादव 1999 से 2004 तक तीसरी बार लोकसभा के लिए चुने गए. उन्होंने मैनपुरी, कन्नौज दो जगहों से चुनाव जीता. कन्नौज से उन्होंने 2000 में इस्तीफा दे दिया. यह भी पढ़ें : Goa: भारी बारिश के कारण दूधसागर झरने के पास फंसे 40 पर्यटकों को बचाया गया

इसी सीट पर मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव पहली बार वर्ष 2000 में कन्नौज लोकसभा सीट से सपा उम्मीदवार के रूप में ही उपचुनाव जीते थे. 2004 में हुए आम चुनाव में वह दूसरी बार लोकसभा के लिए चुने गए. सांसद के रूप में हैट्रिक लगाते हुए 2009 में हुए आम चुनाव में उन्होंने एक बार फिर जीत दर्ज की. साल 2012 में वह मुख्यमंत्री बने और उन्होंने यह सीट छोड़ दी. 2019 में उन्होंने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाते हुए आजमगढ़ से चुनाव लड़े और जीते. मुख्यमंत्री बनते ही अखिलेश ने कन्नौज सीट से अपनी पत्नी डिंपल को उपचुनाव लड़ाया जो कि निर्विरोध चुनाव जीती. 2014 की मोदी लहर के बावजूद भी डिंपल ने यहां से चुनाव जीत लिया, लेकिन 2019 के चुनाव में उन्हें भाजपा से शिकस्त झेलनी पड़ी.

मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई अभय राम यादव के बेटे धर्मेद्र यादव ने 2004 में मैनपुरी से लोकसभा चुना लड़ा और भारी जीत के साथ लोकसभा सांसद चुने गए. 2009 में बदायूं लोकसभा सीट वह चुनाव जीते. 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद इन्होंने बदायूं से जीत हासिल की थी, लेकिन 2019 में जीत नहीं सके. साल 2014 में नेताजी ने मैनपुरी लोकसभा सीट छोड़ दी. इस बार उन्होंने अपने पौत्र तेज प्रताप यादव को मैदान में उतारा. चार लाख से अधिक वोटों से तेजप्रताप यादव ने जीत दर्ज की. यह मैनपुरी लोकसभा चुनाव में अब तक सबसे बड़ी जीत थी. सपा महासचिव रामगोपाल यादव के बेटे मुलायम सिंह यादव के भतीजे अक्षय यादव ने साल 2014 में फिरोजाबाद लोकसभा सीट से चुनाव लड़कर पहली बार संसद पहुंचे, लेकिन 2019 में शिवपाल यादव के चुनाव मैदान में उतरने से वे हार गए.

मैनपुरी के रास्ते ही सैफई परिवार की तीन पीढ़ियों ने संसद का सफर तय किया. चुनावी रथ पर सवारी चाहे किसी की भी रही हो, लेकिन उस रथ के सारथी हमेशा मुलायम सिंह यादव ही रहे. मुलायम के निधन से मैनपुरी सीट के लिए उत्तराधिकारी पर सभी की निगाहें टिकी हुई हैं. मैनपुरी में नेताजी की विरासत संभालने के लिए चार चेहरों पर लोगों की निगाहें टिकी हुई हैं. इसमें सबसे पहला स्थान उनके बेटे और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का ही आता है. उनके बाद डिंपल यादव धर्मेद्र, तेजप्रताप यादव के नाम तेजी से चर्चा का विषय बने हैं.

राजनीतिक पंडितों की मानें तो अभी तक मुलायम के लोकसभा में रहने से दिल्ली और राष्ट्रीय राजनीति पर सपा की भी अलग पहचान बनी हुई थी. अब लोकसभा में दो सांसद सपा से हैं और दोनों मुसलमान हैं. राज्यसभा में तीन में एक यादव, एक मुसलमान और एक जया बच्चन हैं. ऐसे में कुछ विश्लेषकों कहते हैं कि दिल्ली और राष्ट्रीय राजनीति में सपा की धाक जमाने के लिए किसी मजबूत आदमी को मैनपुरी से चुनकर भेजना होगा जो पार्टी की पताका को फहराता रहे.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते हैं कि आमतौर पर मुलायम के रहते वह यह बात सुनिश्चित करते थे. उनके अपने बाहुल्य इलाके से उनके परिवार लोग चुन लिए जाए, क्योंकि यहां अन्य क्षेत्रों से चुनना आसान रहता था. लेकिन जब से मुलायम की सक्रियता कम हुई और अखिलेश के हाथों में पार्टी की बागडोर आई, तब से सपा का ओवर ऑल ग्राफ खराब हुआ. यह इस बात का संकेत है कि परिवार के सदस्यों की जीत के पीछे मुलायाम का संदेश और उनकी सक्रियता मायने रखती थी. ऐसा संदेश देने में अखिलेश कामयाब नहीं हुए हैं. अगर यही हाल रहा तो आने वाले चुनाव तक अपने प्रभुत्व वाले क्षेत्र से यादव परिवार से किसी का लोकसभा में जाना कठिन हो सकता है.