भारत में ट्रांसजेंडर लोगों के खिलाफ सार्वजनिक स्थानों पर टॉयलेट इस्तेमाल करने में भेदभाव किया जाता है. कई ट्रांस एक्टिविस्ट बड़ी संख्या में अलग बाथरूम या जेंडर न्यूट्रल बाथरूम बनाये जाने की मांग कर रहे हैं.भारत में कई दूसरे ट्रांसजेंडर लोगों की तरहही 32 साल की समाजसेविका लीला सार्वजनिक शौचालयों का इस्तेमाल करने से पहले दो बार सोचती हैं. कई बार बेइज्जती और विरोध का सामना करने के बाद अब वो अक्सर घर पहुंचने कर शौचालय जाने में ही विश्वास रखती हैं.
अपना सिर्फ पहला नाम बताने वाली लीला ने नई दिल्ली में थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "एक गैर-एलजीबीटीक्यू व्यक्ति के लिए एक सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल करना शायद सबसे आसान काम है. लेकिन मेरे जैसी एक ट्रांस महिला के लिए, यह...मानसिक आघात पहुंचाने वाला अनुभव हो सकता है."
अमानवीय स्थिति
उन्होंने सालों पहले उनके साथ हुए एक वाकये के बार में बताया जब उन्हें एक महिला शौचालय से निकलना पड़ा था. वहां अन्य महिलायें उनकी मौजूदगी पर आपत्ति प्रकट कर रही थीं. वो कहती हैं, "तब से मुझे एहसास हुआ की मेरे पास पेशाब को रोके रखने के अलावा और कोई विकल्प है ही नहीं."
पेशाब को बार बार लम्बे समय तक रोकने से पेट में दर्द हो सकता है और यूरिनरी इन्फेक्शन का रिस्क भी बढ़ सकता है. तमिलनाडु में रहने वाले एलजीबीटीक्यूप्लस ऐक्टिविस्ट फ्रेड रॉजर्स ने कुछ महीने पहले मद्रास हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने सभी सार्वजनिक स्थानों पर कम से कम एक जेंडर-न्यूट्रल शौचालय की मांग की.
रॉजर्स कहते हैं, "यह वाकई अमानवीय है." ट्रांस लोगों को शौचालय सेवायें दिलाने के लिए उनके जैसे कई लोगों ने कई तरह के कदम उठाये हैं. सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में ही ट्रांस लोगों को "तीसरे जेंडर" के रूप में मान्यता दे दी थी, लेकिन आज भी उनके खिलाफ पूर्वाग्रह और सामाजिक अधिकारहीनता अभी भी जारी है.
रॉजर्स कहते हैं कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम के तहत ट्रांस लोगों को सार्वजनिक सेवाओं का बिना भेदभाव इस्तेमाल करने का बराबरी का हक है, लेकिन शौचालय वाला विषय दिखाता है कि असल में ऐसा नहीं है.
जेंडर-न्यूट्रल शौचालय
ऐक्टिविस्टों का कहना है कि ट्रांस लोगों को अपनी लैंगिक पहचान के मुताबिक सिंगल-सेक्स स्थानों पर जाने दिया जाना चाहिए, चाहे वो स्विमिंग पूल के कपड़े बदलने के कमरे हों या अस्पताल के कमरे.
उदाहरण के तौर पर भारत में अधिकांश अस्पतालों में ट्रांस लोगों के लिए अलग वार्ड नहीं होते. उन्हें उस लिंग के वार्डों में भर्ती भी नहीं किया जाता जिस लिंग से वो खुद को पहचानते हैं.
लेकिन शौचालय वाला मुद्दा और गंभीर इसलिए है क्योंकि कई घरों में तो लोगों के अपने शौचालय ही नहीं होते हैं, विशेष रूप से गरीबों के मोहल्लों या झुग्गियों में. ऐसे स्थानों पर कई लोगों के लिए साझा शौचालय इस्तेमाल करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं होता.
असम में स्थानीय एलजीबीटीक्यूप्लस समूह दृष्टि ने इस समस्या पर रौशनी डालने के लिए #NoMoreHoldingMyPee नाम से एक अभियान शुरू किया है.
समूह की सदस्य ऋतुपर्ण कहती हैं, "शौच करना एक मूलभूत जरूरत है. मर्दों और महिलाओं के लिए सुविधाएं उपलब्ध हैं, लेकिन अगर एक ट्रांस व्यक्ति उनका इस्तेमाल करने की कोशिश करे तो वो खतरा महसूस कर सकता है." यह समूह भी जेंडर-न्यूट्रल शौचालयों की मांग कर रहा है.
हो रहा है बदलाव
मार्च में दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार को एक याचिका पर सुनवाई के बाद आदेश दिया था कि वो आठ सप्ताह के अंदर अंदर ट्रांस लोगों के लिए सार्वजनिक शौचालय बनाये.
सरकार का कहना था कि करीब 500 शौचालय जो पहले विकलांग लोगों के लिए बनाये गए थे उन्हें ट्रांस लोगों के लिए चिन्हित कर दिया गया है. साथ ही सरकार ने यह भी कहा कि तीसरे जेंडर के लिए शौचालय बनाना अब एक प्राथमिकता बन गई है.
कुछ विश्वविद्यालयों जैसे सार्वजनिक संस्थान भी इस तरफ ध्यान देने लगे हैं. आईआईटी दिल्ली में रिसर्च स्कॉलर वैवब दास ने संस्थान में जेंडर-समावेशी शौचालयों की मुहिम शुरू की थी. आज संस्थान में इस तरह के 12 शौचालय हैं. दास खुद नॉन-बाइनरी हैं. वो बताते हैं कि पूरे देश में 20 से भी ज्यादा आईआईटी परिसरों ने भी ऐसा किया है.
दास कहते हैं, "ट्रांस लोगों को ऐतिहासिक रूप से सार्वजनिक स्थानों से दूर रखा गया है और शिक्षा, रोजगार और दूसरे अधिकारों तक पहुंचने के मौकों से वंचित रखा गया है. शौचालयों को जेंडर अल्पसंख्यकों के लिए सुलभ बनाना ऐतिहासिक और व्यवस्थित बहिष्करण को ठीक करने की राह में एक छोटा सा कदम है."
सीके/एए (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)