नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने आज (25 नवंबर) संविधान की प्रस्तावना में 42वें संशोधन (1976) के तहत जोड़े गए 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया. यह फैसला भारत के संविधान की प्रस्तावना और उसके सिद्धांतों को लेकर महत्वपूर्ण है.
कोर्ट की टिप्पणी
मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने कहा कि संसद को संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने का अधिकार है. प्रस्तावना की मूल तारीख (1949) इस संशोधन के अधिकार को सीमित नहीं करती. अदालत ने यह भी कहा कि इतने वर्षों बाद इस मुद्दे को उठाना तर्कसंगत नहीं है.
सीजेआई खन्ना ने स्पष्ट किया कि "भारत में समाजवाद का मतलब कल्याणकारी राज्य से है. यह निजी क्षेत्र को रोकता नहीं है, बल्कि लोगों की भलाई और समानता सुनिश्चित करता है."
याचिकाकर्ताओं के तर्क
यह याचिकाएं बलराम सिंह, वरिष्ठ भाजपा नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर की गई थीं. याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि आपातकाल के दौरान पारित 42वां संशोधन बिना जनता की राय के लागू किया गया और प्रस्तावना में इन शब्दों को जोड़ना विचारधारा को थोपने के समान है.
#BREAKING #SupremeCourt dismisses petitions challenging the addition of words 'socialist' and 'secular' in the Preamble to the Constitution. pic.twitter.com/bHGOdK3inn
— Live Law (@LiveLawIndia) November 25, 2024
अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि उन्हें 'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्षता' की अवधारणाओं से आपत्ति नहीं है, लेकिन इन शब्दों को जोड़ने की प्रक्रिया "अवैध" थी.
सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया
अदालत ने स्पष्ट किया कि संविधान की प्रस्तावना, संविधान का हिस्सा है और इसे अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया जा सकता है. सीजेआई खन्ना ने कहा कि "42वें संशोधन पर पहले भी कई बार न्यायिक समीक्षा हो चुकी है. इसे अब खारिज नहीं किया जा सकता."
सीजेआई ने यह भी कहा कि "धर्मनिरपेक्षता" को पहले ही संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना जा चुका है, खासतौर पर एसआर बोम्मई मामले में.
42वें संशोधन के तहत 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द प्रस्तावना में जोड़े गए थे, जिससे भारत को "समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य" घोषित किया गया. हालांकि, यह संशोधन आपातकाल के दौरान किया गया, जिसे लेकर अब तक बहस जारी रही है.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने संविधान की प्रस्तावना और उसके सिद्धांतों की ताकत को दोहराया है. अदालत का यह फैसला बताता है कि भारत का संविधान समय के साथ विकसित होता है और उसकी व्याख्या भारतीय संदर्भ में ही होनी चाहिए.